SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादश सर्गः __ एकादशः सर्गः गते नरेन्द्रे हितसंकथाभिः स्वयं वराङ्गो मुनिमभ्युपेत्य । कृताजिलिनिजितकामशत्रं संदिग्धबुद्धिः पुनरभ्यपृच्छत् ॥१॥ जीवस्य मिथ्यात्वमनादिबद्धं संसारिणस्तच्च कतिप्रकारम् । कथं तु सम्यक्त्वमुपैति जीवः संचक्ष्व मिथ्यात्वपथादपायम् ॥२॥ एवं स पृष्टो भगवान्यतीशो गुणाकरः शान्तमनाः प्रवक्तुम् । मिथ्यात्वसम्यक्त्वविकल्पतत्त्वं प्रारब्धवान्प्रश्नविनिर्णयार्थम् ॥३॥ ऐकान्तिकं सांशयिकं च मूढं स्वाभाविकं वैनयिक तथैव । व्यवग्राहितं यद्विपरीतसंज्ञं मिथ्यात्वभेदानवबोध सप्त ॥४॥ एकादश सर्ग वरांग प्रश्न पूर्वोक्त प्रकारसे आत्मकल्याणके लिए अत्यन्त उपयोगी धर्मकथा सुन करके जब महाराज धर्मसेन लौट गये, तब कामदेवरूपी महाशत्रु के मान मर्दक श्रीवरदत्तकेवलोके पास कुमार वरांग हाथ जोड़कर बैठ गये और उनसे कुछ प्रश्न किये, क्योंकि उनके मनमें कुछ शंकाएं उठ रही थीं ।। १ ।। हे गुरुदेव ! संसार चक्रमें पड़े हुए जोवके साथ यह मिथ्यात्व अनादि-कालसे बँधा हुआ है ऐसा श्रीमुखसे सुना, किन्तु वह कितने प्रकारका है ? इस मिथ्यामार्गसे कैसे मुक्ति मिलती है. इसके कारण क्या-क्या अनर्थ होते हैं तथा किस आचारविचारसे जोव सम्यकत्वको प्राप्त करता है । इन सबके उत्तर स्पष्ट रूपसे कहनेका अनुग्रह करिये ॥ २॥ मिथ्यात्त्व-वर्णन यतिराज वरदत्तकेवली गुणोंकी खान थे। तथा उनका चित्त परम करुणा भावसे भासमान था । अतएव उक्त प्रकारसे प्रश्न किये जानेपर उसके शुद्ध समाधान करनेकी भावनासे ही उन्होंने मिथ्यात्त्व और सम्यक्त्वके विकल्पों तथा उसके सारभूत । तत्वका व्याख्यान करना प्रारम्भ किया था ॥ ३ ॥ हे युवराज! मोटे रूपसे ऐकान्तिक, ( किसी पदार्थको एक अवस्थापर हो पूरा जोर देना यथा 'संसार नित्य ही है' ), # सांशयिक, (पदार्थक विषयमें विकल्प करते रहना यथा ( 'स्त्रो मुक्ति हो सकती है या नहीं' ) मूढ, (किसी पदार्थको जानता ही [१७५] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy