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________________ बराङ्ग एकादशः चरितम् जीवादितत्त्वं न च वेत्ति किंचिदेकान्तमिथ्यात्वविमोहितात्मा । जात्पन्धमयः खलु चित्रकर्म द्रष्टु विबोद्धं च यथा न शक्तः ॥५॥ हिसानुधर्मस्त्वथ वेहिंसां संदेहमिथ्यात्वविमूढचित्तः।। संदिग्धबुद्धिर्न च निश्चिनोति गोऽश्वान्तरं दूरगतं यथैव ॥६॥ श्रेयो यदज्ञानमिति ब्रवीति संमूढमिथ्यात्वनिरस्तबुद्धिः । विषामतज्ञो विषमेव पीत्वा यथा विनाशं शवशं प्रयाति ॥ ७॥ आहोस्विदज्ञानतया विबुद्धि हिंसाहिसेति मति विधत्ते । सुवर्णमिच्छन्नसुवर्णधातु धमत्यथाज्ञः श्रममभ्युपैति ॥८॥ सर्गः मानाबाना- 4 नहीं) स्वाभाविक, ( प्रकृतिसे विपरीत या अशुद्ध श्रद्वानकी रुचि ) वनयिक, ( राम भा ठोक, रावण भो, वीर भी शुद्ध, बुद्ध, भी सत्य ) व्युद्ग्राहित ( अज्ञान मूलक कुछ भी हठ ) तथा विपरीत ( सांसारिक पदार्थों के ज्ञानमें अपेक्षावाद अनावश्यक है ) ये सात मिथ्यात्वके भेद कहे हैं ।। ४ ।। मिथ्यात्वोंके लक्षण तथा दृष्टान्त एकान्त मिथ्यात्वने जिस जीवके आत्माको अपने अन्धकारसे ग्रस लिया है वह जीव, अजीव आदिके क्रमसे इन तत्त्वोंको समझ ही नहीं सकता है । ऐसा समझिये कि वह 'जन्मसे अंधे' व्यक्तिके समान चित्र, मूर्ति, आदि सुन्दर कार्योंको न तो देख सकता है और न जान ही सकता है ।। ५ ॥ जिस व्यक्तिका चित्त संदेह मिथ्यात्वके रंगसे सराबोर है वह यह भी नहीं निश्चित कर पाता है कि हिंसा करना धर्म है अथवा अहिंसा पालन श्रेयस्कर है । जिस किसी विषयको सोचता है वहीं उसकी बुद्धि संदेहमें पड़ जाती है। वह उस दृष्टाके समान होता है जो बहुत दूर खड़े पशुको देखकर यह निर्णय नहीं कर पाता कि वह कुत्ता है या गाय ॥ ६॥ जिसका विवेक सम्मूढ़ मिथ्यात्वके द्वारा पराजित कर दिया गया है वह यही कहता फिरता है कि 'ज्ञानसे लाभ ! व्यर्थको आकुलता बढ़ती है, अतएव अज्ञान ही सबसे अधिक आनन्दमय है।' जिस व्यक्तिको विष और अमृतकी पहचान नहीं है, वह विषको पोकर नष्ट होनेके लिए विवश होता है, यही गति सम्मूढ़ मिथ्यात्वीको होती है ॥ ७॥ अज्ञान-मिथ्यात्वी जीवको बुद्धि सर्वथा नष्ट हो जाता है, फलतः वह हिंसाको ही अहिंसा समझता है अथवा यों समझिये कि यह सब अज्ञानका ही प्रभाव है कि वह सोना बनानेको इच्छासे ऐसो मूल धातु को भट्टीमें जलाता है जिससे सोना । बन ही नहीं सकता है । परिणाम यह होता है कि उसका समस्त परिश्रम व्यर्थ ही होता है ॥ ८॥ For Private & Personal Use Only THRAMERIELTS [ १७६] Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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