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बराङ्ग चरितम्
अयोत्याय साध्विन्द्रमिन्द्रः पृथुव्यः परीत्य प्रणम्य प्रणुत्यात्मशक्त्या । ॐ द्विपेन्द्राधिरूढो नृपश्छत्रमध्ये महत्या विभूत्या पुरं संप्रविष्टः ॥ ६४ ॥
इति धर्मंकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थं संदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते मोक्षाधिकारो नाम दशमः सर्गः ।
कर ऋषिराज वरदत्तके चरणोंमें रहकर तपस्या करनेका निश्चय किया था, दूसरे सांसारिक भोगोंकी प्राप्तिका संकल्प करके चले गये थे तथा शेष लोगोंने गृहस्थके आचारको निरतिचाररूपसे पालनेका निर्णय किया था ॥ ६३ ॥
इसके उपरान्त ही पृथ्वीके इन्द्र ( धर्मसेन ) ने उठकर साधुओंके इन्द्र ( केवली ) की तीन प्रदक्षिणाएँ कीं अपनी योग्यता अनुसार स्तुति की तथा प्रणाम किया । तथा हाथियोंके इन्द्रकी पीठपर चढकर श्वेत छत्रके नीचे बैठ कर उसने अपनी विशाल राजसंपत्ति के साथ नगर में प्रवेश किया था ।। ६४ ।।
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चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द अर्थ-रचनामय वराङ्गचरितनामक कर्मकथामें मोक्षाधिकार नाम दशम सर्ग समाप्त ।
१. कमिन्द्रोत्कटान्य:, [ पृथिव्याः ] ।
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दशमः
सर्गः
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