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________________ पुनर्मानुषों तां गतिं संप्रवक्तुं मुनीन्द्र प्रवृत्ते सुनिर्वेदमुक्ता। सभा चापि कर्ण निधायात्मचित्तं तुतोषातिमात्रं नरेन्द्रेण सार्धम् ॥ ५५॥ वराज चरितम् इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते तिर्यग्गतिविभागो नाम षष्ठः सर्गः। । उनका विशेष फल, वहाँ प्राप्त होनेवाले महादुःख और उनकी स्थितिका समय, तिर्यञ्चोंके कुल, जीवन तथा इन्द्रियों के विभागों ! । की अपेक्षासे विशेषतया वर्णन किया था ॥ ५४॥ इसके उपरान्त महामुनिराजने मनुष्यगतिका उपदेश देनेकी इच्छासे जब सावधानीसे बोलना प्रारम्भ किया, तो वैराग्यको उद्दीपन करनेवाली शैलीसे सम्बोधित उस सारीकी सारी सभाने राजाके समान ही अपने मनको कानमें स्थापित कर 1 दिया अर्थात् उसके मन और कान एक हो गये थे और राजा सहित पूर्ण सभा, अत्यन्त संतुष्ट रूपको प्राप्त हुई थी ॥ ५५ ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्ग-चरित नामक धर्मकथामें तिर्यग्गतिविभाग नाम षष्ठ सर्ग समाप्त बासनावरार-TELELORDITORIEDIOPARDASTI [११२ Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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