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________________ एकविंशः वराङ्ग चरितम् दिगन्तविख्यातवसुंधरेश्वराः कुर्लाद्धदेशार्थसमन्वितास्तदा । प्रसादमन्विष्य वराङ्गराजतः प्रचकरानर्तपुरस्य सेवनम् ॥ ७८ ॥ इति गुणवति शासत्यप्रतिख्यातकीतौँ सुजनजनपदं तं सर्वसंपत्तिमन्तम् । व्रतनियमसुदानैर्देवपूजाविशेषैर्मुनिभिरपि च शान्त रेमिरे तत्र माः ॥ ७९ ॥ जनयति रतिकार्यां श्रीमदानर्तपुर्या बहुगुणजनवत्यां धर्मकर्मार्थवत्याम् । नरपतिरभिवृद्धि कोशदेशार्थसारैरहरहमुपयातः शुक्लपक्षे यथेन्दुः ॥ ८० ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वरांगचरिताश्रिते ___ आनर्तपुरनिवेशो नाम एकविंशतितमः सर्गः । सर्गः अLEDIGITALLELIMITrenचाचासचाचामान्य विशाल वसुन्धराके न्यापी पालक बरांगराजकी ख्याति सब दिशाओं में व्याप्त हो गयी थी। बड़े-बड़े कुलोन पुरुष, असीम सम्पत्तिके स्वामी, सम्पन्न देशोंके अधिपति, आदि विशिष्ट पुरुष श्री वरांगराजका अनुरग्रह प्राप्त करनेके लिए उत्कण्ठित रहते थे। तथा स्वीकृति मिलते ही आनर्तपुरमें आकर रहते थे और महाराजकी सेवा करते थे ।। ७८ ।। उस समय कोई ऐसा स्थान न था जहाँपर श्री वरांगराजकी कीर्ति न गायी जाती हो ऐसे गुणवान राजाके शासनको पाकर आनर्तपुर राज्य विशेष रूपसे सज्जन तथा शिष्ट पुरुषोंका देश हो गया था। कोई भी ऐसी सम्पत्ति न थी जो वहाँपर पूर्णरूपमें न पायी जाती हो । ठीक इसी अनुपातमें वहाँके नागरिक व्रतोंका पालन, नियमोंका निर्वाह, दानकी परम्परा, देवपूजा की अविराम पद्धति, आदि प्रधान धार्मिक कार्योंको करते थे तथा इन कारणोंसे ही शान्त-कषाय तपोधन मुनियोंका सहवास प्राप्त करके अपने इहलोक तथा परलोक दोनों सुधारते थे ।। ७९ ।। वह आनर्तपुर सहज ही लोगोंके चित्तोंमें घर कर लेती थी। वहाँके निवासी अनेक गुणोंके आगार थे। उस नगरीमें धर्म, अर्थ तथा काम इन तीनों पुरुषार्थोंकी उपासना ऐसे अनुपातसे होती थी कि वे परस्परमें न टकराते थे। इस नगरीके बसाने के बाद से श्री वरांगराजके कोश, देश तथा अन्य सारभूत पदार्थ दिन दूने तथा रात चौगुने ऐसी गतिसे बढ़ रहे थे जिस प्रकार शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन चन्द्रविम्ब बढ़ता जाता है ।। ८०॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें ___ आनर्तपुर-निवेश नाम एकविंश सर्ग समाप्त । RELAnalLESTERRIERELESED (४१९] Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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