SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग चरितम् द्वाविंशः सर्गः ॥१॥ वसुंधरेन्द्रस्य ' तदा पृथिव्यामने कहस्त्यश्व पदातिदेशैः । वराङ्गनाभिर्बहुरत्न देश रवतात्यर्थमनर्थघाती सवारणं सर्वजगत्प्रधानं धर्मार्थकामत्रयरत्नपुण्यम् । तदात्मनीनस्य जनस्य सम्यक् स संविभेजे हि समाहितात्मा ॥ २ ॥ सोत्साहधैर्यतिपौरुषाणि संदर्शयां शत्रुगणे बभूव । सत्यार्जवक्षान्तिदयादमादीन् साधुषु संचचार ॥ ३ ॥ सर्ग वसुन्धराके द्वारा स्वयं वरण किये गये स्वामो वरांगराजको लक्ष्मी अपने आप ही इस संसारमें बड़े वेग से बढ़ रही थी । देश-देशान्तरोंसे प्राप्त मदोन्मत हाथियों, सुलक्षण घोड़ों तथा आयुध विद्यामें प्रवीण पदाति सैनिकोंके द्वारा उनकी चतुरंग सेनाका विस्तार हो रहा था, कुलीन, गुणवती तथा रूपवती ललनाएँ उनके अन्तःपुरकी शोभाको चरम सीमा तक ले गयी थीं। तथा उपायन रूपसे प्राप्त भाँति-भाँति के रत्नों, विपुल कोशों तथा नूतन देशों के समागमके द्वारा उनके राज्यकी सीमाएँ फैलती जा रही थीं ॥ १ ॥ सुराज प्रभाव उसके राज्य में कोई अत्याचार या अनाचार न हो सकता था। वह अपने कर्त्तव्य के प्रति सतत जागरूक रहता था अतएव वह आत्मस्थ होकर अपने राज्यको प्रजाके धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थों में साधक होकर राजस्वके रूपमें केवल इन्हींका छठा भाग ग्रहण नहीं करता था अपितु सम्यक्दर्शन आदि रत्नत्रयके उपासकों की साधनाको निर्विघ्न बनाकर इनके भी निश्चित भाग ( पुण्यरूपी राजस्व ) को प्राप्त करता था, जो कि तीनों लोकों में सबसे अधिक स्पृहणीय तथा वारण आदि विभवों का मूल कारण है ॥ २ ॥ जब कोई शत्रु या शत्रुसमूह उसके सामने शिर उठाता था तो वह उनको अपनी उत्साहशक्ति, प्रखर पराक्रम, अडिग तथा असह्य तेजका मजा चखाता था। किन्तु यहो प्रबल सम्राट् जब परमपूज्य सच्चे गुरुओं, मातृत्वके कारण आदरणीय स्त्रियों तथा लोकमर्यादाके प्रतीक सज्जन पुरुषोंके सामने पहुँचता था तो उनका आचरण सत्य, सरलता, शान्ति, दया, आत्मनिग्रह आदि भावोंसे ओतप्रोत हो जाता था ॥ ३ ॥ १. [ वसुंधरेन्द्रश्च ] । २. [ कौशः ] । ३. क समाहितार्था । Jain Education International For Private & Personal Use Only द्वाविंश सर्गः [ ४२० ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy