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________________ द्वाविंशः वराङ्ग चरितम् नापत्सु मुढो व्यसनेष्वसक्तो न विस्मितस्त्वभ्युदये नतारिः। अकृत्यकृत्यप्रतिपक्षपक्षमित्रारिमित्रप्रकृतिक्रियाज्ञः ॥४॥ स्त्रीबालवृद्धाश्रमदुर्गतानामनाथदीनान्धरुजान्वितानाम् । बलाबलं सारमसारतां च विज्ञाय धीमानथ संबभार ॥५॥ धर्मेककार्यान्गरुवन्ननाम प्रशान्तवैरान्सुतवद्ररक्ष । दर्पोच्छ्रितात्मानमदावलेपान् दूरं स्वदेशादतिनिश्चकास ॥६॥ पराजितात्यन्ततपःप्रकर्षात्सदिन्द्रियप्राथितभोगभागी जगज्जनाक्षिक्षमचारुरूपो मष्टार्थशिष्टेष्टविशिष्टभाषी ॥७॥ मामयमम सर्गः CreateeISTHeawe-we-se-powerestreSLTASHRSameers शत्रुओंके मानमर्दक श्री वरांगराजका विवेक विपत्तियोंमें पड़ जानेपर भी कम न होता था, संकटके समयमें भी वह किसी तरहकी असमर्थताका अनुभव न करता था, अभ्युदयकी चरम सोमातक पहँच जानेपर भी उसे विस्मय न होता था। अपने । कार्योंका उसे इतना अधिक ध्यान था कि कर्त्तव्य तथा अकर्तव्य, शत्रुपक्ष और आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रुके स्वभावको भाँप लेनेमें उसे जरा-सी भी देर न लगती थी ॥ ४ ॥ उसकी कर्त्तव्यबुद्धि इतनो तोक्ष्ग थी कि वह राज्यमें पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुड्ढों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम लिए जानेके कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जानेपर किसी भी कार्यके अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, दीनों, अन्धों तथा भयंकर रोगोंमें फंसे हुए लोगोंकी आर्थिक, कौटम्बिक, आदि सामर्थ्य अथवा सर्वथा निस्सहाय अवस्था तथा उनकी शारीरिक मानसिक दुर्बलता P आदिका स्वयं पता लगाकर उनके भरण-पोषणका प्रबन्ध करता था ।। ५ ।। दुखियोंका सगा जिन शान्त स्वभावो नागरिकोंके जोवनका एकमात्र कार्य धर्मसाधना थो, उनको वरांगराज गुरुके समान पूजते थे, तथा जिन स्वकार्यरत पुरुषोंने पहिले किये गये वैरको क्षमा याचना करके शान्त कर दिया था, उनका अपने पुत्रोंके सदृश भरणपोषण करता था। किन्तु जो अविवेकी घमंडमें चर होकर बहुत बढ़-बढ़कर चलते थे अथवा मानके उन्मादमें दूसरोंको कुछ समझते ही न थे, उन सब मर्यादाहीन असंयत लोगोंको उसने अपने राज्यसे बहुत दूर तक खदेड़ दिया था ।। ६॥ पुण्य प्रताप श्री बरांगराजने अपने पूर्वजन्मोंमें उग्र तथा परिपूर्ण तप किया था इसी कारण उसे महान् पुण्यबन्ध हुआ था। उसीके परिणामस्वरूप इन्द्रियोंके सब ही शिष्ट भोग उसे प्राप्त थे। शारीरिक सौन्दर्य भी ऐसा अनुपम था कि सारे संसारके लोगोंकी आँखें देखते-देखते न अघाती थीं। जो कुछ भी बोलता था वह सुननेमें ही अच्छा न लगता था अपितु उसका प्रयोजन मधुर एवं . हितकर, वाक्यरचना के साथ तथा शिष्ट परिणाम इष्ट होता था ॥ ७॥ For Private & Personal Use Only यमRADIRELESED [४२१) Jain Education intemational www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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