________________
सप्तदशः सर्गः
रथाधिरूढाः प्रचलत्किरीटा' ज्वलत्तनुत्रावतसर्वगात्राः । धनुभिराश्विन्द्रधनुर्वभिर्वर्षासु धारा इव तेऽप्यदीव्यन् ॥ ७४ ॥ मदोद्धतानामथ कुजराणां चलन्महाशैलसमाकृतीनाम् । स्कन्धाधिरूढाः प्रतियोद्धकामाः परस्परं तेऽभ्यनयन्गजेन्द्रान् ॥ ७५ ॥ एवंप्रकारे तुमुले विमर्दे शौर्यस्य पुसामनुयोगभूतम् । समुद्ध तासिद्युतिसंनिरस्ता प्रभाविभूतिः स ब [---] ॥ ७६ ॥ ते योधमुख्याः कणपैर्गदाभिः सतोमरैः पट्टिसाभिण्डिमालैः। चक्रैश्च शूलैः पृथुलोहवृन्तः प्रजघ्नुरन्योन्यममोधमोक्षः ॥ ७७ ॥ केचिद्वि सृष्टानि वरायुधानि श्वकौशलाच्चिच्छिदुरन्तरिक्षे। केचिद्विगृहीत्वन्तर एव वीरस्तदैव [-] 'तान्यमुचन्परेभ्यः ॥ ७८ ॥
BAMAHARAHATEETHARMAPAHARIEWS
रथयुद्ध रथोंपर आरूढ़ योद्धाओंके शिरोंपर बँधे मुकुट जगमगा रहे थे। उनकी पूरीकी पूरी तेजोमय देह अत्यन्त चमचमाते हुए कवचसे सुरक्षित थी। उनके धनुषोंकी दृढ़ता आदि गुण इन्द्रधनुषको ही कोटिके थे इन धनुषोंके द्वारा वे निरन्तर बाण फेंककर शस्त्र-कीड़ा कर रहे थे । बाण क्या छट रहे थे मानों वर्षामें मसलाधार पानी इन्द्रधनुष ही बरसा रहा था ।। ७४ ॥
मदजलके स्त्रावके कारण अत्यन्त उद्धत तथा चलते फिरते महापर्वतोंके समान विशाल ढीठ हाथियोंपर आरूढ़ यात्रा । परस्परसे एक दूसरे पर प्रहार करनेके लिए अपने अपने मस्त हाथियोंको शत्रुओंके निकट लिये जा रहे थे ।। ७५ ॥
उक्त प्रकारसे दारूण और घोर संघर्ष चल रहा था इसमें पुरुषोंके शौर्य तथा साहस दोनोंका उत्कृष्ट उपयोग हो रहा था । कोशसे बाहर खींचकर चलायी जानेवाली तलवारोंकी द्यतिके सामने सूर्यको किरणोंका उद्योत मन्द पड़ गया था, फलतः विचारा सूर्य उस समय प्रभाहीन ही दिखायी देता था ।। ७६ ॥
इस समय तक प्रधान-प्रधान योद्धा संग्राममें उतर चुके थे। वे कणप, गदा, तोमर, पट्टिस ( एक प्रकारका फरसा) भिण्डिपाल (हाथसे फेंका जानेवाला) चक्र, बरछी तथा बड़े-बड़े लोहेके भालों द्वारा परस्परमें ऐसे प्रहार करते थे जिनका लक्ष्य कभी चूकता ही न था ॥ ७७ ।।
युद्धको चरम-सीमा शाके द्वारा फेंके गये बढ़ियासे बढ़िया शस्त्रोंको कुछ योद्धा अपनी रणकुशलताके कारण आकाशमें ही कांट-छाट । १. क तिरीटाः। २. क बभूव शूराः। ३. [ते]।
[३
]
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only