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वराङ्ग चरितम्
सर्गः
एकविंशः सर्गः पुरा वराङ्गास्तु कुमन्त्रिमन्त्रितस्तदात्मदुर्वृत्तविपाकतश्च सः। बनान्तरे व्यालमगादिसेविते निरन्तरं दुःखमनेकमाप्तवान् ॥१॥
एकविंशा स एव पूर्वाजितपुण्यपाकतः समुद्रवृध्यादिभिराप्तसंगतः। क्रमेण भूयः समवाप्य सच्छ्रियं स्वबन्धुमित्रष्टजनैः सहोषितः॥२॥ विपत्तयश्च व्यसनानि संपदः सुखासुखोन्मिश्रफलप्रवृत्तयः । वियोगसंयोगसमृद्धिहानयो भवन्ति सर्वत्र मनुष्यजातिषु ॥३॥ जिनेन्द्रसच्छासनमार्गयायिना त्रिलोकसद्भावविदा महात्मना । उदारवृत्तेन शुचं व्यपास्यता सुखं परत्रेह च लभ्यते ध्रुवम् ॥ ४ ॥
एकविंश सर्ग
'अहोकर्म विचित्रता' अधम कुमंत्रियोंके षड़यंत्रको न सोचकर तथा पूर्वजन्ममें किये गये अपने कुकर्मोके फलके उदयमें आनेपर पहिले जिस वरांगको व्याघ्र, सांप, मृग, आदि जंगलो पशुओंके रहने योग्य भीषण वनमें निवास हो नहीं करना पड़ा था, अपितु एक क्षणको भी विश्राम पाये बिना अनेक दुःखोंको निरन्तर सहना पड़ा था ॥१॥
उसी राजपुत्र वरांगके पूर्वोपाजित पुण्यमय कर्मों का जब परिपाक हो गया और शुभ उदय हुआ तो उसे सागरवृद्धि । आदि विश्वसनीय तथा हितैषी पुरुषोंका समागम प्राप्त हुआ था। उसको क्रमशः सब प्रकारको कल्याणकर लक्ष्मी प्राप्त हो गयी । थी। इतना ही नहीं वह अपने स्नेही बन्धुबान्धवों मित्रों तथा प्रियजनोंके साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था ॥२॥
इस मनुष्य योनिमें जोवपर बड़ी विपत्तियां पड़ती हैं, घोर संकट आ घेरते हैं, विपुल सम्पदाओंका भी समागम होता है, कभी-कभी ऐसी भी प्रवृत्तियां होती हैं जिनका फल मिले हुए सुख-दुःख होते हैं। कभी वियोग है तो कभी संयोग है, एक समय समृद्धि है तो दूसरे ही क्षण सर्वतोमुख हानि भी है ।। ३ ।।
किन्तु जो सज्जन प्राणी श्री एक हजार आठ जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट मार्गका अनुसरण करते हैं, तीनों लोकोंमें क्या सार है इसे भलीभांति जानते हैं, जिनका आचार-विचार उदार है, शुद्धियुक्त मार्ग की आराधना करते हैं तथा निर्दुष्ट आचरणका पालन करते हैं, वे ही महापुरुष इस भव तथा परभवमें, निश्चयसे सुख प्राप्त करते हैं ।। ४ ।।
चाममा
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