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________________ एकविंशः बराङ्ग चरितम् ततः कदाचित्सुरसेनभूपतिः समाप्तकार्यो नृपमायतश्रियम् । सुखोपविष्टं समुपेत्य सादरं व्यजिज्ञपद्यातुमथात्मनः पुरीम् ॥ ५॥ विचिन्त्य लोकानुगतिप्रवर्तनं मृगेन्द्रमत्तद्विपविक्रमक्रमः । प्रदानमानादिभिरर्चनार्हणैः समर्प्य राजा विससर्ज भूपतिम् ॥ ६ ॥ स देवसेनो भगिनी सुताद्वयं समर्प्य लोकस्य गतिस्थितिक्रियाः । विमोच्य जामातरमानतद्विषं स्वदेशमृध्द्या परया ययौ नृपः ॥७॥ गते वराङ्गः श्वशुरे महाद्युतौ दिगन्तरख्यातविशिष्टपौरुषः ।। समेत्य कान्तापितमातबन्धुभिर्गतश्रमः संमुमुदे पुरोत्तमे ॥८॥ सर्गः MAHARASTRARDaromiseriaemmasumpeaceae एक दिन ललितेश्वर देवसेन, महाराज धर्मसेनके पास पहुँचे, इनको सम्पत्ति तथा शोभा दिन-दूनी व रात-चौगुनी बढ़ रही थी। उस समय वे सुखके साथ निश्चिन्त बैठे थे। उनके सामने आदरपूर्वक उपस्थित होकर ललितेश्वरने अपनी राजधानी । को लौट जाने की अभिलाषाको प्रकट किया था, क्योंकि जिस कार्यके प्रसंगसे वे आये थे वह भी समाप्त हो चुका था ॥५॥ सम्बन्धो विदा सिंहके समान पराक्रमी तथा मदोन्मत्त गजके तुल्य धोर गम्भीर-गामी महाराज धर्मसेन कुछ समय तक लोकव्यवहार तथा शिष्टाचारके विषयमें सोचते रहे थे। इसके उपरान्त कुछ निर्णय करके उन्होंने साले तथा समधी ललितेश्वरको, सम्मान, भेंट तथा अन्य सत्कारके योग्य उपायोंके द्वारा वैभवपूर्वक पूजाकी थी और इस उत्सवके पूर्ण होते ही उन्हें विदा कर दिया था ॥ ६ ॥ महाराज देवसेनने भो पत्नोरूपसे संसारके प्रर्वतन, स्थिति तथा सदाचारको मूलभूत अपनी दोनों राजदुलारियोंको बहिन, महारानी गुणवतीको सेवामें अर्पण करके तथा समस्त शत्रु-मण्डलको निर्मूल करनेवाले सुयोग्य दामादसे विदा लेकर विशाल वैभव और प्रतापके साथ अपने देशको प्रयाण किया था ॥७॥ महाप्रतापो ससुर ललिततेश्वरके चले जाने पर राजा वरांग अपनी पत्नियोंसे मिलकर, माता-पिताको स्नेहधारामें आलोडन करके तथा बन्धु-मित्रोंसे घिरा रहकर उत्तमपुरमें आनन्द करता था। अब तक उसकी थकान दूर हो चुकी थी। उसके पराक्रमकी ख्याति समस्त दिशाओंमें व्याप्त हो चुकी थी॥ ८॥ [४०१] १. म महोद्यतौ। _Jain Education intemationa५१ २. क गतः श्रयः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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