SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादशः नृपस्तु पुत्रस्य गुणानुदाराउजनेरितान्संसदि संनिशम्य । प्रहृष्टचेताः प्रियकृत्प्रजानां कृतार्थमात्मानमर्मस्त सद्यः ॥ ५३ ॥ स्वपुत्रसत्कृत्यनुरक्तबुद्धेनूपस्य चित्तानुगतं विदित्वा । अनन्तचित्राजितदेवसाहा' विज्ञापय मन्त्रिवरा नरेन्द्रम् ॥ ५४॥ प्रकृत्यनुज्ञातगुणो विनीतो दक्षः कृतज्ञश्च कृती सुशास्त्रः । एतेषु सर्वेषु भवत्सुतेषु योग्यः प्रजाः पालयितुं वराङ्गः ॥ ५५ ॥ तेषां हितप्रीतिनिवेदकानां स्वराज्यसंवर्धनतत्पराणाम् । निशम्य वाक्यान्यनुमन्य राजा राज्याभिषेकाय शशास सर्वान् ॥ ५६ ॥ सर्गः HEALTHHAHAHRI HAMATAANTHAN की मर्यादापूर्वक छानबीन करता था । जो दयामय कार्यों में व्यस्त रहते थे, धर्माचरणके विशेष प्रेमी थे, स्वभावसे ही विनम्र थे तथा विशेष ज्ञानी थे ऐसे सब लोगोंका मर्यादाके अनुकूल सन्मान करता था ।। ५२॥ सुपुत्रानुराग तथा संतोष महाराज धर्मसेन राजसभामें जब लोगोंको कुमार वरांगके सेवापरायणता, न्याय-निपुणता, आदि उदार गुणोंकी प्रशंसा करते सुनते थे तो उनका हृदय प्रसन्नताके पूरसे आप्लावित हो उठता था। ऐसे योग्य पुत्रके कारण वह तुरन्त ही अपने आपको कृत्कृत्य समझते थे, क्योंकि प्रजाओंको सुखी बनाना उन्हें भी परमप्रिय था ।। ५३ ।। अपने पुत्रके सुकर्मोको देखकर राजाका मन और मस्तिष्क दोनों ही उसपर दिनों-दिन अधिक अनुरक्त होते जाते थे, मंत्रियोंने राजाके मनकी इस बातको भांप लिया था अतएव अनन्तसेन, चित्रसेन, अजितसेन तथा देवसेन चारों प्रधान मंत्रियोंने राजाके पास जाकर निम्न प्रकारसे निवेदन किया था ।। ५४ ॥ राज्याभिषेक प्रस्ताव ___ महाराज ! कुमार वरांग स्वभावसे ही विनम्र और मर्यादापालक हैं, प्रत्येक कार्यको करनेमें कुशल हैं, आश्रितों तथा । हितुओंकी कार्य क्षमताको परखते हैं (फलतः लोग अनुरक्त हैं ) सब प्रकारसे योग्य हैं, समस्त शास्त्रोंके पंडित हैं तथा प्रजा उनकी इन सब विशेषताओंको समझती है इसीलिए उनपर परम अनुरक्त है । इन सब कारणोंसे महाराजके सब पुत्रोंमेंसे कुमार वरांग ही प्रजाका भली-भाँति पालन करनेमें समर्थ हैं ॥ ५५ ॥ महाराज धर्मसेनके राज्यको सब प्रकारसे सम्पन्न बनाने में उन मंत्रियोंका काफी हाथ था, तथा उनकी सम्मति हित। १. [धीवराह्वा]। २. [ व्यज्ञापयन् ] । [१८७] Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy