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________________ बराङ्ग चरितम् अष्टमः सर्गः त्वग्घ्राणजिह्वाश्रुतिलोचनानामर्थेन्द्रियाणां प्रियमाचरन्तः । प्रत्येकमविविधप्रकारे रूपादिभिर्धर्मपरा रमन्ते ॥ ५४॥ एको हि पुण्याजितदीप्रकीतिरुद्वी क्ष्यते पुंभिरुदारशीयः । एकश्च धर्मप्रतिबद्धवीर्यः शननेकान्समरे विजेता ॥ ५५॥ मनुष्यजातौ भगवत्प्रणीतो धर्माभिलाषो मनसश्च शान्तिः। निर्वाणभक्तिश्च दया च दानं प्रकृष्ट पुण्यस्य भवन्ति पुसः ॥५६॥ नानाविधक्षत्रियवंशजाता वसुधरेन्द्रा ऋषभादिवर्याः । आहन्त्यमायुर्वरधर्मभक्त्या पूज्याश्च बन्दाश्च जगत्त्रयस्य ॥ ५७॥ केचित्पुनः शान्तकषायदोषा बुधा जिताशाः सुखिनस्त्विहैव । परत्र च प्रापितकामभोगा भवन्ति नाथा भवनत्रयस्य ॥ ५८ ॥ धर्म परायण मनुष्य स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र तथा कर्ण इन पांचों इन्द्रियों को हित-मित समस्त विषयों का यथेच्छ तथा अनेक प्रकारों से एवं विधि प्रसंगों के रूप में जो रस लेते है यह सब धर्म को पुट का ही फल है जो अर्थ और काम को भी उपयोगी बनातो है ।। ५४ ॥ पुण्यकार्योंके द्वारा कोई माताका लाल इतना अधिक यश और तेज कमाता है कि बड़ेसे बड़े पराकमी पुरुष भी उसके सामने आनेपर शिर उठा करके उसको आश्चर्यसे देखते हैं। इसी प्रकार कोई दूसरा सपूत धार्मिक कार्यों में ही अपनी सारी शक्तिको लगाकर अवसर आते ही अनेक शत्रुओंको युद्ध में परास्त कर देता है ।। ५५ ॥ प्रशस्त नरजीवनके कारण मनुष्य जन्म प्राप्त हो जानेपर भी वीतराग प्रभु द्वारा उपदिष्ट धर्मके ज्ञान और आचरणकी अभिलाषा, मानसिक शान्ति, मुक्त जीवों और मुक्तिके साधनोंके प्रति अनुराग, दयामय स्वभाव तथा दान देनेकी इच्छा केवल उन्हीं पुरुषोंको होती है जिन्होंने पूर्व जन्मोंमें अत्यधिक पुण्य किया है ।। ५६ ॥ इक्ष्वाकु आदि विविध उत्तम क्षत्रिय वंशोंमें उत्पन्न सारी (गन्तव्य = आयतन) पृथ्वीके एक-छत्र अधिपति आर्य ऋषभदेव आदि परम पवित्र धर्मकी प्रगाढ भक्तिके ही कारण अर्हन्तकेवली पदको पा सके थे। इतना ही नहीं बल्कि तीनों लोकोंके । वन्दनीय और पूज्य हो सके थे ।। ५७ ।। दूसरे कुछ लोग क्रोधादि कषायरूपी समस्त दोषोंको नष्ट करके आशाओंपर भी विजय पाते हैं इसीलिए वे ज्ञानी लोग १.क दीप्ति । २. म उदीक्षते। ३.[आर्हन्त्यमापु]। For Private & Personal Use Only SRIDEUDAEELSEIRELESSERGINGERGARच्य www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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