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________________ वराज सप्तविंशः 'सर्गः परितम् सुदर्शनश्चैव हि कुम्भराजः सुमित्रनामा जयधर्मराजः । समद्रपूर्वो विजयोऽश्वसेनः सिद्धार्थराजः पितरोर्हतां च ॥ ७३ ॥ आद्याभवत्सा मरुदेव्यतश्च तथा द्वितीया विजयादिसेना। सिद्धार्थसंज्ञा किल मला च सौम्या च देवी पथिवी तथैव ॥ ७४ ॥ सा लक्ष्मणासीन्नवमी च नाम्ना नन्दा च देवी खल वैष्णवी च । जया तथा श्यामिनिका च देवी सर्वश्रिया सुव्रतयोरवाचा ॥ ७५ ॥ पद्मालया मित्रसमाह्वया च सरक्षिला विश्रुतसोमदेवी। सा वप्रिणी चैव शिवाग्रदेवी सब्रह्मदत्ता प्रियकारिणी च ॥ ७६ ॥ भगवान अरनाथ और मल्लिनाथके पूज्य पिता महापुरुष सुदर्शन तथा कुम्भराज थे। मुनिसुव्रतनाथके पिता महाराज सुमित्र थे, भगवान नमिनाथके पिता जयधर्म नामसे विश्वविख्यात थे। यादवपति समुद्रविजयको कौन नहीं जानता है, भगवान नेमिनाथने इन्हींके घरके अंधकारको दूर किया था। काशीपति महाराज अश्वसेनके पुत्र भगवान पार्श्वनाथ थे तथा ज्ञातृवंशके प्रधान लिच्छविराज महाराज सिद्धार्थ के पुत्र अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे ॥ ७३ ।। तीर्थकर माता भगवान पुरुदेव प्रातः स्मरणीयाजगन्माता मरुदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न हुए थे। भगवान अजितानाथकी, माताके पुण्य नाममें सेना शब्दके पहिले विजय शब्द आता है-विजयसेना थीं। भगवान शंभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ तथा सुपार्श्वनाथकी परमपूज्य माताओं के नाम क्रमशः सिद्धार्था, मंगला, सौम्या, देवी तथा पृथ्वी महारानी थीं ।। ७४ ॥ चन्द्रावदात चन्द्रप्रभकी माता महारानी लक्ष्मणा थी। नवम तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्तकी माताका शुभनाम नन्दा था। दशमें तथा ग्यारहवें तीर्थंकरोंको क्रमशः महारानी देवी तथा वैष्णवीने जन्म दिया था । भगवान वासुपूज्य, पूज्य माता श्री जयादेवीसे जन्मे थे। तेरहवें, चौदहवें तथा पन्द्रहवें तीर्थंकरोंकी माताओंके नाम क्रमशः श्यामनिकादेवी, देवी तथा सर्वश्री थीं। भगवान शान्तिनाथने परम पूज्य माता श्री सुव्रताकी कुक्षिसे जन्म लिया था। ।। ७५ ॥ भगवान कुन्थुनाथ, पूज्यमाता पद्मालयाके गर्भ में पधारे थे । भगवान अरनाथ महारानी मित्रसमाकी आँखोंको ज्योति थे। भगवान मल्लिनाथ तथा मुनिसुव्रतको जन्म देकर क्रमशः श्रीमती सरलाक्षि देवी तथा विश्वविख्यात सोमदेवीने अपने मातृत्वको सफल किया था। भगवान नमिनाथने प्रणवादेवीको कूक्षिमें नौ मास वास किया था तथा यादवपति नेमिनाथरूपी भानुका १.क पृथुवो। रामाRANIRUITMEIReयचय [५४१ । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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