________________
पंचविंशः
बराङ्ग चरितम्
सर्गः
कुरुमहषिः कुरुवंशजातः कुमारभावे स तपस्त्वतप्तम् । प्रजाहिताय प्रथितप्रभावस्ततः कुरुक्षेत्रमभूत्प्रधानम् ॥ ५६ ॥ आतापयोग परिगृह्य धीराः पाण्डोः सुताः क्लेशविनाशनाय । प्रचक्रिरे तत्र तपोऽतिघोरं मातापनीतेन पवित्रमासीत् ॥ ५७ ॥ श्रीपर्वते श्रीः किल संचकार तपो महद्वर्षसहस्रमुग्रम् । श्रीपुष्करेऽतप्त हि पुष्कराख्यः कैलासशैले वृषभो महात्मा ॥ ५८॥ तमुज्जयन्तं धरणीधरेन्द्रं जनार्दनक्रीडवनप्रवेशम् । यो दिव्यमतिर्यदुवंशकेतुः सोऽरिष्टनेमिभगवान्बभूव ॥ ५९॥
DILIATELL
याचनमानसम्मानरचानाLASTHANI
I
कुरुवंश प्रधान राजवंश रहा है, इसी वंशमें बहुत समय पहिले एक कुरु नामके महात्मा उत्पन्न हुए थे। उन्हें अपना प्रजासे इतना अधिक प्रेम था कि उसको सब दृष्टियोंसे सम्पन्न बनानेके लिए ही उन्होंने अपने सूखों तथा भोगोंकी उपेक्षा करके कुमार अवस्थामें ही कठोर तप किया था। इस तपस्यामें सफल होनेपर उनका प्रभाव इतने व्यापक क्षेत्रमें प्रसिद्ध हो गया था कि लोग अपनी उलझनोंसे छुटकारा पानेके लिए उनके पास जाते थे तब ही से कुरुक्षेत्र प्रधान तीर्थ हो गया है । ॥ ५६ ॥
सांसारिक सुख-दुखोंके अनेक उतार चढाव देखने के बाद महाराज पाण्डके पत्रोंको जगतसे वास्तविक वराग्य हो गया था। वे इन क्लेशोंको मूलसे हो नष्ट कर देना चाहते थे। इसी अभिलाषासे प्रेरित होकर उन स्वाभाविक धीर तथा गम्भार पाण्डवोंने प्रव्रज्या ग्रहण करके आतापनयोग लगाया था। उनके अतिघोर आतापनयोगका स्थान भी पूर्वोक्त कुरुक्षेत्र ही था। पाण्डवोंकी उग्रतपस्यासे उनको आत्मशुद्धि ही नहीं हुई थी अपितु कुरुक्षेत्र भी परम पवित्र हो गया था ॥ ५७ ।।
श्रीपर्वत (कर्नूल जिलेका पहाड़ ) वर्तमानमें सुविख्यात तीर्थ है, वहाँपर श्री नामके महर्षिने लगातार एक हजार वर्ष पर्यन्त उग्र तथा विशाल तपको सांगोपांग विधिपूर्वक किया था। पुष्कर नामके किन्हीं महर्षिने जिस स्थान पर सावधानीसे तपस्या की थी वही स्थान आज श्री पुष्करजी नामसे विख्यात है। इस युगके प्रवर्तक श्री ऋषभदेव तीर्थकरने कैलाश पर्वतकी शिखरपर ही तपस्या करके आठों कर्मोको विनष्ट किया था ।। ५८ ॥
धारणीधरोंके अग्रगण्य गिरनार (ऊर्जयन्त ) पर्वतको कौन नहीं जानता है, जिसके वन किसी समय जनार्दन श्रीकृष्ण की रास क्रीड़ाओंके द्वारा झंकृत हो उठते थे। उसी गिरनार पर्वतपर यादव वंशके मुकुटमणि, अलौकिक सौन्दर्य और सुगुणोंके
भण्डार श्री नेमिकुमारने उग्र तपस्या की थी तथा कर्मोंको नाश करके कैवल्य प्राप्त करके अरिष्ट नेमि हो गये थे ।। ५९ ॥ । 1.[तपस्त्वतण्त ]।
GESTINDEINE
[५०१)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org