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वराङ्ग चरितस्
श्रीदेवसेनेन पुनविमुक्ता शक्तिः स्फुरद्रत्नगभस्तिमाला । श्वेतातपत्रं मधुराधिपस्य न्यपातयद्ध स्तिपकेन छत्रं प्रभग्नं मधुराधिपस्य दन्तप्रभङ्गादिव
रोषा तितूर्णं कणपां मुमोच स तस्य चिच्छेद मृगेन्द्रकेतुम् ॥ ८१ ॥ भिन्नात्मकेतुर्बु' हदुग्ररोषः प्रलम्बबाहुः प्रतिलब्धसंज्ञः ।
प्रगृह्य चक्रं मधुरेश्वरस्य गदाग्रहस्तं प्रचकर्त वीरः ॥ ८२ ॥ अथोभयोच्छिन्न विपन्नकेत्वोर्निपातितोपान्तगजाधिनेत्रोः प्रमदितात्मद्विप पादगोत्रोर्मुहूर्तमेकं
लम्बा शस्त्र ) को उठाकर बलपूर्वक देवसेनपर चला दिया था, किन्तु सटीक प्रहार न होने के कारण यह प्रहार देवसेनके मुकुटके एक ही भागको नोंच सका था ॥ ७९ ॥
सार्धम् ॥ ८० ॥ वारणेन्द्रः ।
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समयुद्धमासीत् ॥ ८३ ॥
इस प्रहारके उत्तर में महाराज देवसेन के द्वारा भी शक्ति चलायी गयी थी। यह प्रहार ऐसा सटीक लगा था कि इसकी मारसे मथुराधिपका महावत ही धराशायी न हुआ था अपितु उसे बेधती हुई वह शक्ति शत्रु के गले पर पहुँची थी, जहाँसे जाज्वल्यमान किरणों युक्त रत्नमाला के साथ-साथ उसके श्वेत क्षत्रको लेती देती हुई उस पार निकल गयी थी ॥ ८० ॥ राज-चिह्न छत्रके नष्ट हो जानेपर मथुराधिप इन्द्रसेन वैसे ही झुंझला उठा था जैसे कि एक अग्रदन्त टूट जाने पर उत्तम हाथी उद्भ्रान्त हो जाता है। अतएव क्रोधसे पागल होकर उसने शत्रु पर अत्यन्त वेगके साथ कणप दे मारा था। इस प्रहारने महाराज देवसेन के सिंह चिह्न युक्त केतुको काटकर गिरा दिया था ।। ८१ ।।
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अपनी ध्वजा कट जानेपर महाराज देवसेनके रोष तथा उग्रताका पार न रहा था, उन्हें अपने कटु कर्त्तव्यका स्मरण हो आया था अतएव उन्होंने अपने लम्बे तथा पुष्ट बाहुओंसे एक चक्रको उठाकर मथुराके राजा पर छोड़ दिया था। इस प्रहार से महावीर ललितेश्वरने शत्रु के उस हाथको ही काट डाला था जिससे वह उनपर गदा चला रहा था ॥ ८२ ॥
इस समय तक दोनों ही राजाओंके केतु कट छट कर गिर चुके थे, दोनोंके हाथी तथा उनके सुयोग्य संचालन एक दूसरेके अतिनिकट आ धमके थे। इतना ही नहीं दोनोंके हस्तिपक हाथियोंके पैरोंके तले कुचले जा चुके थे तथा दोनों हाथी भीषण रूपसे जूझ गये थे । एक क्षण भर तो ऐसा लगता था कि दोनों ही बराबरीके हैं ॥ ८३ ॥
१. । रुषातिपूर्णे ] ।
२. क द्विपसाद, [ गोत्रों° ] ।
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अष्टादशः
सर्गः
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