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________________ य वराज चरितम् शष्टावक्षः तस्मिन् रणे भीमतमे प्रवृद्ध बलाहकस्त्वप्रतिमल्लनुन्नः । युगान्तवाताहविन्ध्यकल्पः पपात भूमौ करुणस्वनेन ॥ ८४ ॥ बञाभिघातादिव शैलशृत शस्त्रप्रहारप्रतिभग्नगात्रम् । उपेन्द्रसेनं विगतासुमाशु समैक्षिषातामवनीश्वरौ तौ ॥५॥ गजावपातध्वनिमप्रगल्भं महाभ्रनादप्रतिमं निशम्य । तौ युध्यमानौ वसुधेन्द्रचन्द्रौ बभूवतुर्वैधमनःप्रचारौ ॥८६॥ श्रीदेवसेनो रिपुमर्दनश्रीरुपेन्द्रसेनव्यसनं समीक्ष्य ।। जयं परं प्राप्य विभासमानं कश्चिद्धटं चापि भशं जहर्ष ॥ ८॥ सर्गः MARRIAGRAयायम-RTA . युद्धको पराकाष्ठा किन्तु इसी समय जब यह भयंकर संघर्ष और अधिक दारूण होता जा रहा था उसी समय कश्चिद्भटके अप्रतिमल्ल गजेशने मथुराधिपके पुत्र उपेन्द्रसेनके बलाहक गजराजको दबा दिया था। अप्रतिमल्लके प्रबल प्रहारको न सम्हाल सकनेक कारण जोरसे चिंघाड़ता हुआ बलाहक उसी प्रकार लड़खड़ाकर गिरा था जिस प्रकार युगके अन्त प्रलयकालमें बहते प्रभजनके झकोरोंसे विन्ध्यगिरिके शिखर लड़क जाते हैं ॥ ८४ ॥ अपने संग्राममें लीन दोनों राजाओंने देखा था कि वज्रके महाप्रहारसे जैसे पर्वतका उन्नत शिखर ढह जाता है उसी प्रकार कश्चिद्भटके आघातोंसे छिन्न-भिन्न शरीर होकर मथुराका युवराज अपनी इहलीला समाप्त करके धराशायो हो गया है ।। ८५ ॥ गजराज बलाहकके गिरनेसे जो महानाद हआ था वह एक भीषण प्रणाद था, वह कल्पान्तके मेघोंकी भीमगर्जनाके समान था। यद्यपि दोनों पृथ्वीपति पारस्परिक संग्राममें अत्यन्त लीन थे तो भी उक्त नादको सुनकर उनकी मानसिक प्रवृत्ति दो धाराओंमें बँट गयी थी ( अपने संग्रामको चाल रखना चाहते थे तथा ध्वनिका कारण भी जानना चाहते थे ) ॥ ८६ ॥ शत्रु ओंके दमन करने योग्य प्रभुताका स्वामी ललितेश्वर मथुराके युवराजकी विपत्ति तथा मृत्युको देखकर और उसी के सामने महा विजयको प्राप्त करके शोभायनान कश्चिद्भटको देखकर इतना अधिक प्रसन्न हुआ था कि उसकी प्रसन्नताकी सीमा न रही थी ॥ ८७ ॥ m ate १. क कश्चिद्भटश्चापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only saww.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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