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वराङ्ग चरितम्
ये स्तन्यपान नहीं करते । और ऊपरको मुख किये पड़े रहते हैं तथा अँगूठा चूसते रहते हैं, इस प्रकार सात सप्ताहमें ये दोनों युवक हो , जाते हैं और पति-पत्नीकी तरह शेष जीवन बिताते हैं । सबके बज्र-वृषभ-नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है । मृत्यु होने
पर इनका शरीर बादलके समान लुप्त हो जाता है । इनमें जो सम्यक्दृष्टि होते हैं वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं । तथा मिथ्या दृष्टि भवनत्रिक (भवनवासी व्यन्तर तथा ज्योतिषी देवों) में उत्पन्न होते हैं । भरत तथा ऐरावतोंमें सुषमा सुषमा-सुषमा तथा सुषमा-दुषमा कालोंमें क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा जघन्य भोगभूमियाँ होती हैं ।
किन्नर-देव योनिकी चार श्रेणी हैं । इनमें दूसरी श्रेणीके देव विविध देश-देशान्तरों में रहनेके कारण व्यन्तर कहलाते हैं । इन व्यन्तरोंके प्रथम भेदका नाम किन्नर है । वैदिक मान्यतामें इन्हें गायक देव बताया है। ऐसा लिखा है कि इनका मुख घोड़ेका होता है और शरीर मनुष्यका होता है । कुबेरको इनका स्वामी बताया है ।
नागकुमार-प्रथम श्रेणीके देव भवन-वासियोंका दूसरा भेद । इनका चिह्न सर्प होता है । वैदिक मान्यतामें इन्हें सर्पयोनि अर्थात् ऊपरसे मनुष्य और कमरके नीचे साँपसरीखा बताया है । इनके चौरासी लाख भवन होते हैं और प्रत्येकमें एक जिन मन्दिर होता है।
पन्नग-सर्पका नाम है । शास्त्रोंमें भवनवासियोंके भेद नागकुमारों तथा व्यन्तरोंके तीसरे भेद महोरगोंके लिए भी इसका प्रयोग हुआ
गन्धर्व-व्यन्तर देवोंका चौथा प्रकार । १-हाहा, २- हूहू, ३-नारद, ४-तुंबुरू, ५-गर्दव, ६-वासव, ७-महास्वर, ८-गीत, ९-रति तथा १०-दैवतके भेदसे ये दश प्रकारके होते हैं । वैदिक मान्यताके अनुसार ये गायक जातिके देव हैं ।
सिद्ध-व्यन्तरोंकी उपभेद । वैदिक मान्यतामें भी इसे देवयोनियोंमें गिना है।
तुषित-लोकान्तिक देवोंका छठा भेद । ये ब्रह्मलोक स्वर्गक सबसे ऊपरके भागमें रहते हैं । यतः यहाँसे चयकर एक बार जन्म धारण करके मोक्ष चले जाते हैं अतः इन्हें लोकान्तिक कहते हैं, क्योंकि इनके लोक अर्थात संसार भ्रमणका अन्त आ चुका है। ये सब स्वतन्त्र
और समान होते हैं। इन्हें इन्द्रियोंके विषयमें प्रीति नहीं होती अतः ये देवोंमें ऋषि माने जाते हैं। सब देव इनकी पूजा करते हैं। ये चौदह पूर्वक ज्ञाता होते हैं और जब तीर्थंकरको संसारसे विराग होता है तो ये उनको उपदेश देकर दीक्षाके अभिमुख करते हैं।
चारण-व्यन्तर देवोंका एक भेद । वैदिक मान्यतामें इन्हें देवोंका स्तुतिपाठक या गायक कहा है ।
दन्तकेलि-हाथी मदोन्मत्त होकर अपने दाँतोंसे पहाड़ों-पत्थरों-पेड़ोंको तोड़ देता है यही दन्तकेलि है । शृङ्गाररसमें दाँतोंसे काटनेको भी दन्तकेलि कहते हैं।
उद्भिज-वनस्पति कायिक जीव, जो पृथ्वीको फोड़कर उगते हैं। बलि-पूजा अथवा उपहार । वैदिक मान्यतामें इसका मुख्य अर्थ पशु आदिका बलिदान होता है ।
इन्द्रध्वज-इन्द्रके द्वारा की गयी पूजा | नन्दीश्वर पर्वमें प्रतिवर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुनमासोंके शुक्ल पक्षकी अष्टमीसे आठ दिन पर्यन्त भव्य जीवों द्वारा जो पूजा की जाती है उसे अष्टालिक पूजा कहते हैं यही जब इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिकादिकके द्वारा की जाती है तो इसे इन्द्रध्वज मह कहते हैं।
पञ्चामृत-दूध, दही, घी, इक्षुरस तथा सौषधि रसको पंचामृत कहा है । इन पाँचोंसे तीर्थकरकी मूर्तिका अभिषेक किया जाता है।
आगम-सर्वज्ञ वीतराग द्वारा उपदिष्ट, अकाट्य, पूर्वापर विरोध रहित, सब क्षेत्रों और कालोंमें सत्य तथा तत्वोंके उपदेशक शास्त्रको आगम कहते हैं।
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अचमान्चELEDARPATI-मस्यामारामारायला
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