SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ TAGRA वराङ्ग चरितम् R HTI-IMERatop arametersSATTHANI निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि किस परिस्थितिसे प्रेरित होकर किस आचार्यने किस मान्यताकी व्याख्यामें क्या है परिवर्तन, परिवर्द्धन अथवा वर्गीकरण किया था, किन्तु अन्य साक्षियोंके अभावमें उनके ही बलपर कोई निश्चय नहीं किया जा सकता है। यतः १-उद्योतनसुरिने वरांगचरितको पद्मचरितसे पहिले तथा जटाचार्यको रविषेगसे पहिले रखा है, २-वरांगचरित भूमिका आचार्यको प्रारम्भिक कृति है जैसा कि उसकी अलंकृत कविता, विद्वत्तापूर्ण विवेचन तथा सिद्धान्त-तत्त्व चर्चा और पौराणिक वर्णनोंसे स्पष्ट है अतएव जटाचार्य अपनी कृतिको सर्व विश्रुतिको स्वयं भी देख सके होंगे अर्थात् उन्होंने बहुत लम्बी आयु पायी होगी । ३-आचार्य जिनसेन द्वितीयने अपने आदिपुराणको ८वीं शतीके अन्त अथवा ९वीं शतीके प्रथम चरणमें प्रारम्भ किया था। ये इसे अपूर्ण छोड़कर ही स्वर्ग सिधार गये और इनके प्रधान शिष्य श्री गुणभद्राचार्यको उसे समाप्त करना पड़ा। अर्थात् आदिपुराण आचार्य जिनसेन (द्वि० ) को बुढ़ापेकी कृति थी । तथा इन्होंने जटाचार्यको ऐसे स्मरण किया है मानो उन्हें इन्होंने देखा ही था । ४-इतना ही नहीं इन्होंने सिद्धसेन, समन्तभद्र, यशोभद्र, प्रभाचन्द्र और शिवकोटिके बाद जटाचार्यका स्मरण किया है अतएव कहा जा सकता है कि श्री जटाचार्यका समय ७वीं शतीके आगे नहीं लाया जा सकता। कोप्पलका शिलालेख भी इसी बातकी पुष्टि करता है । इसके विषयमें डॉ० उपाध्ये' ने ठीक ही लिखा है कि आचार्यश्रीके समाधिमरणके बहुत समय बाद श्री चावय्यं यात्रार्थ कोप्पन पहुँचे तो उन्होंने देखा कि कालान्तरमें लोग यह भूल हो जायंगे कि जटाचार्यका भी यहाँ समाधिमरण हुआ था । एक ऐसे आचार्यके मृत्यु स्थानको लोग भूल जायँ जिसने अपने उपदेशों द्वारा देशके कोने-कोनेको प्रबुद्ध किया था तथा धर्मकथा लिखनेके तीर्थका प्रवर्तन किया था। यह बात उन्हें बहुत खटकी और उन्होंने लोकश्रुतिके आधारपर उस स्थानपर आचार्यश्रीके चरण सैकड़ों वर्ष बाद खुदवा दिये। फलतः उपलब्ध साक्षियोंके आधारपर जटाचार्यका समय ई० को सातवीं शतीके आगे ले जाना समुचित न होगा। जटाचार्यका कवित्व यथार्थ तो यही है कि जटाचार्यको स्वयं यह अभीष्ट न था कि वे कवियों की कोटिमें रखे जायें। यदि ऐसा न होता वेग अपनी इस कृतिको 'चारों वर्ग समन्वित धर्मकथा' स्वयं क्यों कहते ? तथा इसके बहुभागको सिद्धान्त और तत्त्व चर्चासे क्यों भरते। चतुर्थ सर्गका कर्म प्रकरण, पांचवेंका लोक-नरक वर्णन, छठेमें तिर्यञ्च योनिका विवेचन, सातवेंमें भोगभमि, आठवें में कर्मभूमि, नवेंमें स्वर्गलोक, दशमें मोक्षका दिग्दर्शन, ग्यारहवें के प्रारम्भमें मिथ्यात्वोंका प्ररूपण, पन्द्रहवें के उत्तरार्द्धमें बारह व्रतोंका उपदेश, बाइसमें गृहस्थाचारका निरूपण, तेइसवेंको जिनेन्द्र प्रतिष्ठा तथा पूजा, चौबीसवेंका परमत निरसन, पच्चीसवेंमें जगत् कर्तृत्व, वेद-ब्राह्मण-विविध तीर्थोकी व्यर्थता, छब्बीसवेंका द्रव्यगुण प्रकरण, प्रमाणनय विवेचन, सत्ताइसवेंका त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित चित्रण, अट्ठाइसमें बारह भावना, तथा इकत्तीसवेंका महाव्रत-समिति-गुप्ति ध्यान आदिका विवेचन ह स्पष्ट ही बताता है कि यह ग्रन्थ धर्मकथा हो नहीं है, अपितु इसका बहुभाग धर्मशास्त्र ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांत और न्यायशास्त्रसे भागनेवाले सुकुमार मति पाठकोंके लिए ही आचार्यने अपना अध्ययन समाप्त होते ही यह रचना की थी। १. संस्कृत वरांगचरितकी भूमिका, पृ० २३ ( मा० ग्र० मा०, पु० ४०) EIRELEASILADARIASIREDITORIERSITES Jain Education intemational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy