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________________ वराङ्ग चरितम् द्वीपः समुद्रो भवनं विमानं सरः पुरं गोपुरमिन्द्रकेतुः । शङ्खः पताका मुसलं च भानुः पद्म शशिस्वस्तिकदामकूर्माः ॥ ५७ ॥ आदर्शसंहेभगजेन्द्रमत्स्याश्छत्रासिशय्यासनवर्धमानम् 1 श्रीवत्सचक्रानलवज्रकुम्भा हस्ताग्रपादेषु भवन्ति तेषाम् ॥ ५८ ॥ नराश्च सर्वे सुरतुल्यरूपा नार्यः सुरस्त्रीप्रतिमानभासः । विचित्रवस्त्रोज्ज्वलभूषणाङ्गाः सयौवनाः सस्मितमृष्टवाक्याः ॥ ५९ ॥ अन्योन्यगीतश्रवणानुरक्ता अन्योन्य वे षैरवितृप्तकामाः । चिरं रमन्ते वनिता नरासु परस्परप्रोतिमुखाः सदैव ॥ ६० ॥ परस्पराक्रीडनसक्तचित्ताः परस्परालङ्कृतकान्तरूपाः । परस्परालोकनतत्पराक्षा उदत्कुरौर देवकुरौ च जाताः ।। ६१ ।। भोगभूमिज शरीर उनकी हथेलियों और पैरोंके तलुओंमें द्वीप, समुद्र, भवन, विमान, जलाशय, नगर, गोपुर, ( प्रवेश द्वार ) इन्द्रकी ध्वजा, शंख, पताका, मूसल, सूर्य, कमल, चन्द्रमा, स्वस्तिक, माला, कच्छप, दर्पण । सिंह, हाथी, ऐरावत, मछली, छत्र, शय्या ( पलंग), सिंहासन, वर्धमानक ( ) श्रीवत्स, (पुष्पाकार चिह्न) चक्र, अग्निज्वाला, वज्र, कलश के चिह्न होते हैं, जो कि लौकिक सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार विभूतियोंके द्योतक हैं ।। ५७-५८ ।। भोगभूमिके सबही पुरुषोंके स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा कान्ति देवोंके समान होती है और समस्त नारियाँ तो साक्षात् ari ही होती हैं क्योंकि उनके अद्भुत वस्त्र, आभूषण और शृङ्गार सर्वथा मनोहर होते हैं, वे सब सदा युवतियाँ हो रहती हैं। वे मन्द मुस्कानके साथ जब बोलती हैं तो उनके शब्द कानमें अमृतकी तरह लगते हैं ।। ५९ ।। भोगभूमिया जुगलिया (एक साथ उत्पन्न पुरुष और स्त्री ) एक-दूसरेके गीत और प्रेमालाप सुननेमें ही मस्त रहते हैं । परस्परमें पुरुष स्त्रीका और स्त्री पुरुषका वेशभूषा देखते-देखते तृप्त ही नहीं होते हैं । वे सदा हो एक-दूसरे के प्रेमको पाने के लिए उन्मुख रहते हैं । इस प्रकार बे चिरकाल एक-दूसरेके साथ रमण करते हैं ॥ ६० ॥ Jain Education International उनकी आँखें एक-दूसरेका सौन्दर्य पान करनेमें ही व्यस्त रहती हैं। आपसमें पति-पत्नीका और पत्नी पतिका शृंगार करके एक-दूसरेके रूपको और अधिक मोहक बना देते हैं। वे एक-दूसरेको प्रिय क्रीड़ाको करनेमें ही अपना शरीर और मन दोनों लगा देते हैं ॥ ६१ ॥ १. [ नरेषु परस्परप्रीतिसुखाः ] । २. [ उदक्कुरौ ] । For Private & Personal Use Only सप्तमः सर्ग: [१२६] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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