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बराङ्ग
सप्त
चरितम्
सर्गः
सद्दष्टिसम्तानचरित्रबद्भ्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति सुदृष्टयो ये। भुक्त्वा सुखं ते सुरमानुषाणां क्रमेण निर्वाणमवाप्नुवन्ति ॥ ५३॥ मिथ्यादृशः सद्वतदर्शनेभ्यः असंयतः केवलभोगकाङ्क्षाः । दत्वेह दानं परया विशुद्ध्या ते भोगभूमौ खलु संभवन्ति ॥ ५४॥ निगत्य गर्भादिवसांस्तु सप्त वसन्स्यथाष्ठमपालिहन्तः।। द्विसप्ततिस्तैस्तु' दिनैरथान्यैर्भवन्ति ते षोडशवर्षलीलाः ॥ ५५ ॥ स्त्रीपुंसयुग्मप्रसवात्मकास्ते सर्वे विशुद्धेन्द्रियबुद्धिसत्त्वाः। सर्वे च सल्लक्षणलक्षितानाः सर्वे कलाज्ञानगुणोपपन्नाः ॥ ५६ ॥
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सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्रधारी मुनियोंको जो भव्यजीव भक्तिपूर्वक उक्त चार दान देते हैं वे सम्यकदृष्टी देवगतिके समस्त सुखोंको भोगकर उत्तम मनुष्योंमें जन्म लेते हैं, और मनुष्यगतिके अभ्युदयकी चरम सीमापर पहुंचकर क्रमशः अन्तमें मोक्ष-लक्ष्मीको वरण करते हैं ॥ ५३ ।।
मिथ्यादृष्टी जीव, जो किसी प्रकारके आचरणका पालन नहीं करते हैं तथा सदा ही भोगों और उपभोगोंकी इच्छा किया करते हैं वे भी सत्य श्रद्धायुक्त व्रतधारो ऋषियोंको चार प्रकारके दानमेंसे कोई भी दान यदि परम शुद्धि और भक्तिके साथ इस भवमें देते हैं, तो निश्चयसे भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं ।। ५४ ।।
भोगभूमि-जन्मादि वे ज्योंही गर्भसे निकलते हैं त्योंही उनके माता पिताकी मृत्यु हो जाती है, अतः जन्मके बाद वे एक सप्ताह पर्यन्त ऊपरको मुख किये जन्म स्थलपर पड़े रहते हैं और अपने पैरके अंगठेको चूसते हैं। और दो सप्ताह बीतते-बीतते ही उनका शारीरिक विकास इतना हो जाता है कि उनका शरीर और स्वभाव सोलह वर्षके किशोर और किशोरीके समान हो जाता है ॥ ५५ ॥
भोग-भूमियाँ जीव अपनी माताके उदरसे युगलरूपमें उत्पन्न होते हैं और युगल भी स्त्री और पुरुषका होता है । जन्मसे । ही उनकी इन्द्रियाँ, बुद्धि और शक्ति निर्दोष होती हैं। किसी भोगभूमियाका शरीर ऐसा नहीं होता है जिसपर शुभलक्षण न पाये जांय तथा उन सबमें जन्मसे ही ललित कलाओंका प्रेम, ज्ञान तथा शुभ गुण होते हैं ।। ५६ ॥
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१. [ द्विसप्तभि ] ।
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