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________________ बराङ्ग चरितम् आयुर्नराणामथ पूर्वकोटिः प्रकीर्तितोत्कर्षविशेषभावात् । अन्तमुहर्त हि जघन्यतस्तु तत्कर्मभूमौ कथितं प्रमाणम् ॥ ६७ ॥ इति धर्मफलं सुखादिलितं यतिना वणितमर्थवविशालम् । दुरितस्य फलं समक्षभूतं तदपि प्रोक्तमनेकखेदभिन्नम् ॥ ६॥ सुखदुःखविमिश्रितं तु नृत्वं कथयित्वार्थगवेषिणे नृपाय । सुरलोककथां कथाविधिज्ञो गदितुं स्पष्टाक्षरां प्रवृत्तः ॥ ६९ ॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते कर्मभूमि विभागो नाम अष्टमः सर्गः। अष्टमः सर्गः राजETISHETREETIREMI स्थिति प्रमाण यदि कर्मभूमिमें मनुष्य आयुका उत्कर्ष अपनी अन्तिम सीमातक जाये तो मनुष्य अधिकसे अधिक एक पूर्वकोटि वर्षोंतक जीवित रहेगा । इसी प्रकार यदि कमसे कम समय तक ही मनुष्य जी सके तो उसकी आयुका प्रमाण एक मुहूर्तकी सोमा न लाँघेगा अर्थात् अन्तर्मुहूर्त होगा ॥ ६७ ।। इस प्रकारमे यतिराज वरदत्तकेवलीने सुख, भोगप्राप्तिके द्वारा जानने योग्य, सार्थक तथा विशालतम धर्माचरणके फलका वर्णन किया था । संसारमें सर्वसाधारणके अनुभवमें प्रतिक्षण आनेवाले पापकर्मोके फलोंको भी कहा था जो विविध प्रकारके । शोक और दुःखोंसे आत्माको आकुल कर देते हैं ।। ६८ ॥ तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त उत्सुक राजा धर्मसेनको सुख और दुःखकी रंगस्थली मनुष्य गतिका व्याख्यान देनेके पश्चात्, उपदेश कलाके मर्मज्ञ मुनिराजने स्पष्ट वचनों द्वारा देवताओंके लोककी कथा कहना प्रारम्भ किया था। ६९ ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरितनामक धर्मकथामें कर्मभूमि वर्णन नाम अष्टम सर्ग समाप्त [१४४] R L १.क भेदभिन्नम् । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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