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जराङ्ग चरितम्
इति कथितमुदारदानपुण्यं प्रभवसुखं निरुपद्रवं विशालम् । दशविधतरुभिविसृज्यमानं ललिततरं नृपते समासतस्ते ॥ ६६ ॥ अशुभशुभफलस्य साक्षिभूतामवनिमयो गदितुं मुनौ प्रवृत्ते अतिहृषिततनूरुहो नरेन्द्रः श्रवणनिबद्धमना भृशं बभूव ॥ ६७ ॥
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इतिधर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते देवकुरूत्तरकुरुवर्णनो नाम सप्तमः सर्गः ।
हे राजन् ! दाता दान आदिकी विशेषताओं पूर्वक दिये गये विशाल दानके पुण्यसे प्राप्त होनेवाले भोगभूमिके अत्यन्त ललित सुखको आपको संक्षेपसे समझाया है। दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे प्राप्त इस सुखमें न तो कोई बाधा ही आ सकती है और न इसकी सीमा ही है ॥ ६६ ॥
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जब मुनिराज श्रीवरदत्त केवलीने पुण्य और पापके मिश्रित शुभ और अशुभ फलको रंगस्थली भूत गति ( मनुष्यगति ) के विषयमें उपदेश प्रारम्भ किया तो राजाको इतना आनन्द हुआ कि उसे रोमाञ्च हो आया और उसने अपने मनको पूर्णरूप से कर्णेन्द्रियमें केन्द्रित कर दिया ।। ६७ ।।
चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द- अर्थ - रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें देवोत्तर-कुरु वर्णन नाम सप्तम सर्ग समाप्त ।
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SORG
सप्तमः
सर्ग:
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