SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दण्डास्त्रिगुप्तीश्च चतुष्कषायान्द्रव्याणि षड्जीवनिकायभेदाः। दशप्रकारं श्रमणेन्द्रधर्म तेभ्यः समाचष्ट समाहितेभ्यः ॥५॥ सज्ज्ञानचारित्रगतिव्रतानि दशार्धभेदान्यवदत्स तेभ्यः । । तपोविधि द्वादशलक्षणं च संसारविच्छित्तिकरं सामाख्यत् ॥ ६॥ संज्ञाश्चतस्रः करणानि पञ्च चेर्यापथादीन्समितीश्च पञ्च । आवश्यकाः षट्च षडेव लेश्या योगत्रयं चाप्यवदद्यथावत् ॥७॥ चरितम् श्रेणियोंको 'गुणस्थान' संज्ञा दी है। केवली महाराजने समस्त यतियों विशद रूपसे यह समझाया था कि मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व ये तीनों क्या हैं और किस प्रकारसे इन तीनों परिणामोंके ही कारण चौदह (मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, । अविरत, देशविरत, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण , उपशान्त मोह, क्षोण मोह, सयोगकेवली तथा अयोगकेवली ) गुणस्थान होते हैं ॥ ४ ॥ मुनिधर्म दण्डों ( त्रियोग ) के सब भेदों, मन, वचन तथा काय इन तीनोंकी गुप्ति ( संयम ) क्रोध, मान, माया, तथा लोभ चारों कषायोंका षड् जीव आदि छहों द्रव्योंका स्वरूप, पृथ्वी आदि षनिकायोंका विस्तार तथा क्षमा, मार्दव आदि दशों प्रकार के मुनियोंके धर्मोको गुरुवरने भलीभाँति समझाया क्योंकि सब श्रोता भी अपने नूतन आचरणके प्रति पूर्णरूपसे जागरूक थे ॥५॥ सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक्-चारित्रकी एक-एक विगतका सांगोपांग उपदेश दिया था। चारों गतियोंकी निस्सारताको । प्रदर्शित किया था । दशके आधे अर्थात् पाँचों महावतोंको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार तथा अनाचारको दृष्टियोंसे स्पष्ट किया था। छह प्रकारके बाह्य तथा छह हो प्रकारके अभ्यन्तर तपके विषयमें विशेष कर पूरा-पूरा परिचय दिया था क्योंकि उसको ही निर्दोष साधना करके उन्हें संसार चक्रसे छूटकर शुद्ध आत्मा स्वरूपको प्राप्त करना था ।। ६॥ चारों ( आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह ) संज्ञाओं, पाँचों करण (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत) ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेप तथा उत्सर्ग इन पाँचों समितियों, आवश्यक--जिनकी संख्या छह (सामयिक, चतुर्विशति स्तव, । वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग ) है, कृष्ण, नील, कापोत, पोत, पद्म तथा शुक्ल इन छहों लेश्याओं, शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों योगोंके स्वरूपको यथाविधि बतलाया था ।। ७ ।। १. [°गुप्तीश्च ] २. [ °भेदान् ] । यामाहारामारामाराम [६०८) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy