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वराङ्ग
त्रयोविंशः
चरितम्
सर्गः
प्रदीपचन्द्रग्रहतारकाणां प्रभासु पाण्डुत्वमुपागतासु । भेर्यः सशङ्खाश्च समर्दलाश्च प्रणेदुरम्भोनिधिमन्द्रघोषाः ॥ १३ ॥ एवं प्रकारेण कथान्तरेण तस्यां रजन्यामपविQतायाम् । अथोदयो भानुहिरण्यकुम्भान्भक्त्या जिने बिभ्रदिवाभ्यराजत् ॥ १४ ॥ चणश्च पुष्वैरपि तण्डुलैश्च दशार्धवर्णबलिकर्मयोग्यैः । नानाकृतींस्तत्र बलोन्विधिज्ञा भूमिप्रदेशे रचयांबभूवुः ॥ १५ ॥ उपर्युपर्युच्छ्रितचित्रकूट मणिप्रभालङ्कृतसत्कवाटम् । प्रयत्नसंधितवृक्षवाट रराज भूयो नरराजवेश्म ॥ १६ ॥
रात्रि में जिनकी निर्मल कान्ति तथा प्रकाश अन्धकारको नष्ट कर रहे थे उन्हीं चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारका तथा प्रज्वलित दीपकोंकी प्रभाके पीले पड़ जाने पर प्रातःकालीन मंगलकी सूचना देनेके लिए जलधरोंकी गर्जनाके सदृश मन्द ध्वनि करते हए भेरियों, शंखों तथा मर्दलोंके साथ अनेक बाजे बजने लगे थे ।। १३ ।।
उक्त प्रकारके धार्मिक व्यासंग तथा अन्य इसी प्रकारकी कथाओं आदिको करते हुए ही उत्सवकी वह प्रथम रात्रि न जाने कब बीत गयी थी।
प्रातःकालीन पूजा उषाकालमें लालवर्ण सूर्यबिम्ब उदयाचलपर उठ आया था तो ऐसा प्रतीत होता था कि जिनेन्द्र प्रभुको प्रगाढ़ भक्तिसे प्रेरित होकर सूर्य ही स्वर्णका कलश होकर सेवामें उपस्थित हुए हैं ॥ १४ ॥
जो लोग चौक पूरने तथा प्रातःकालीन पूजाकी विधिके विशेषज्ञ थे उन्होंने भाँति-भांतिके शुद्ध सुगन्धित चूर्णो, पुष्पों, अक्षतों तथा चौक पूरने आदिमें सर्वथा उपयुक्त ( दशके आधे ) पाँच प्रकार शुद्ध रंगोंको लेकर मन्दिरके आगेको भूमिपर भी नाना प्रकार तथा आकारके चौक पूर कर प्रातःकालीन अर्घ्य ( रंगोली ) चढ़ाये थे ॥ १५ ॥
जिनालय-वास . पूजाके दिनोंमें मन्दिरमें रहना आवश्यक था अतएव बड़े यत्न और परिश्रमके द्वारा लगाये गये सुन्दर वृक्षोंकी कतारोंके मध्यमें मनुष्योंके अधिपतिका एक विरामगृह था, जिसके समस्त शिखर ऊपर, ऊपर ही उठते गये थे। उसके सुन्दर दृढ़ कपाटों पर अनेक भाँतिके मणि लगे हुए थे, उनसे छिटकती हुई प्रभाके कारण कपाटोंकी शोभा अत्यन्त मोहक हो गयी थी ॥ १६ ।।
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१. म अथोदये।
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