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________________ त्रयोविंशा सर्गः जिनेन्द्रचक्रायुधकेशवानां महर्षिविद्याधरचारणानाम् । हलेशवागीशपुरन्दराणां बद्धानि नानाचरितानि यानि ॥९॥ गन्धर्वगीतश्रुतितालवंशमृदङ्गवीणापणवादिभित्रैः । लास्यप्रयोगेष्वथ ताण्डवेषु स्वायोज्य चित्रं ननृतुस्तरुण्यः ॥ १० ॥ कुर्वद्धिरन्यैश्च कथोपदेशान्स्तोत्रैश्च देवानपरैः स्तुवद्भिः। प्रदीपभासा बरधर्म'पुस्तान्सवाचयद्भिश्च सुकण्ठरागैः ॥ ११ ॥ कुदृष्टिपक्षं क्षपयझिरन्यैरुद्भासयभिः समयंस्त्वमन्यैः । तपस्विवयँर्वरधर्मकायौता त्रियामा निरपेतनिद्रैः ॥ १२॥ श्री एक हजार आठ तीर्थंकरों, सर्वज्ञके ज्ञानको धारण करनेवाले वागीशों ( गणधरों), चक्रवतियों, नारायणों, तपोधन मुनियों, अलौकिक विद्याओं के स्वामी विद्याधरों, चारण ऋद्धिधारी साधुओं, हलधरों ( बलभद्रों) तथा इन्द्रोंके जिन उदार चरित्रोंका पुराणोंमें वर्णन पाया जाता है ।। ९॥ उन सबको गन्धर्वोके गीतों, श्रुति, ताल, वाँसुरी, मृदंग, वीणा, पणव, आदि वाजोंके द्वारा गा बजा कर तथा अभिनयपूर्वक हाव-भावका प्रदर्शन करती हुई सुन्दरी तरुणियाँ भाँति-भांतिके ताण्डवों ( शारीरिक चेष्टाओं द्वारा कथानकका अभिनय कर देना ) में घटाकर ऐसा नृत्य करती थीं जिसे देख कर मन मुग्ध हो जाता था ।। १० ॥ बहुमुखी भक्ति कुछ लोगोंने दूसरे जिज्ञासुओंको धर्मोपदेश देकर, दूसरोंने भाव तथा भक्तिके पूरसे आप्लावित श्रुति सुखद स्तोत्रोंके A द्वारा सच्चे देवोंकी स्तुति करके, अन्य लोगोंने जगमगाते हुए, विमल दीपोंके प्रकाशमें बैठकर मधुर कण्ठसे शास्त्रोंका पाठ करते हुए ॥ ११ ॥ ___ ऐसे भी सज्जन थे जिन्होंने मिथ्यादृष्टिको उखाड़ फेकनेका प्रयत्न करते हुए, दूसरोंका यही प्रयत्न चलता रहा थ कि किसी प्रकार संयम में अमल तथा दृढ़ हों। तथा जिन लोगोंका तपयोग लगानेका अभ्यास था उन्होंने भी उत्तम समाधिको लगाते हुए ही सारी रात्रिको व्यतीत कर दिया था। उस दिन रातभर किसीने निद्रा क्या, पलक भी न झपने दिया था॥ १२ ॥ [४.२] ।। १. म धर्महस्तान् । २. [ समयं स्वमन्यः]। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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