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वराङ्ग चरितम्
विशिष्ट एवाप्रतिमल्लहस्ती ददौ पुनर्मेऽप्रतिमल्लकल्पम् । युद्धाभितृप्तिश्चिरकालतो मे भविष्यतीति प्रजगाद राजा ॥ २६ ॥ मद्वाक्यनीतौ यदि नैव तिष्ठेललोभाच्च ददिभिमानतो वा। निष्कृष्यते श्रीललिताह्वपुर्याः संस्थापयिष्यामि वशस्थमन्यम् ॥ २७ ॥ एकस्य हेतोः करिणो यदासौ तेच्छेत्सुखं जीवितुमुन्नताशः । मत्सैन्यनिर्वासितपौरराष्ट्रो मामेव गन्ता शरणं हताशः ॥ २८ ॥ सर्वक्षितीशेष्वहतप्रताप२ आज्ञा मदीयामवमन्यमानः । सत्यमित्रः सकलत्रपुत्रः सकोशदण्डः क्षयमेष्यतीति ॥ २९ ॥
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फिर भी अनुपम तथा अद्वितीय हाथी के स्वामी ललितपुरनरेशने मुझको बहुत अद्भुत वस्तु दो है क्योंकि इस संसारमें कोई भी योद्धा ऐसा नहीं है जो मेरी समता करनेका साहस करे। तो भी बहुत लम्बे अरसेके बाद मेरी युद्ध करनेकी अभिलाषा इस स्वयं आगत शत्रुकी कृपासे पूर्ण होगी । इन वाक्योंके द्वारा उसने अपने क्रोधको प्रकट किया था ।। २६ ॥
मैं जो कहूँगा उसोको नोति मानकर यदि पालन करेगा ता चाहे उसको इस उद्दण्डताका कारण लोभ हो, आत्मगौरव हो या घमंड हो, मैं उसे ललितपुरीके सिंहासन परसे चोटो पकड़ कर नोचे खींच लूंगा। तथा किसी दूसरे ऐसे व्यक्तिको । वहाँ स्थापित करूँगा जो मेरे वश में रहना स्वीकार करेगा ॥ २७ ॥
शत्रुपराभवको कल्पनाए यदि यह ललितपुरका अधिपति केवल एक हाथीके कारण अपने सुखमय राज्य तथा महत्त्वाकांक्षाओंसे परिपूर्ण जीवनको भी नहीं चाहता है तो निश्चित समझिये कि मेरी प्रबल प्रतापयुक्त सेना उसे अपनी राजधानीसे ही नहीं अपितु अपने राष्ट्रसे भी खदेड़ कर निकाल देगी । तब उस अभागेको समस्त आशाएं मिट्टोमें मिल जायेंगो और वह मेरे चरणोंमें शरणकी याचना करता हुआ आयेगा ॥ २८ ।।
जब कि वह मेरे उस प्रचण्ड शासनको अवहेलना करता है जिसका प्रभाव संसारके समस्त राजाओंमें अक्षुण्ण है तब । यह निश्चित है कि वह अपनी प्राण प्रियाओं तथा पुत्रों, विपत्ति में सहायक मित्रों वा आज्ञाकारी सेवकों तथा असीमकोश वा
रणकुशल सेनाके साथ सदाके लिये नष्ट हो जायेगा ।। २९ ।।
पलान्चान्नानागारमान्याना
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१. क दधौ।
२. [ प्रतामामाज्ञां]।
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