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वराङ्ग चरितम्
अथो ह्य ुपस्थानगतः स्वदूतं प्रत्यागतं त्वप्रतिलेखमात्रम् । दृष्ट्वा कृताङ्कं पुरतो नृपाणां चुक्रोध राजा भृशमिन्द्रसेनः ॥ २२ ॥ प्रोन्नत मानदप्तः परावमानैकरसानभिज्ञः ।
स्वभावतः
मुहुर्मुहुः श्वासविकम्पिताङ्गो जज्वाल वाताहतवह्निकल्पः ॥ २३ ॥ मत्तोऽधिकाः शक्तिबलप्रतापैयें पार्थिवास्तेः सह योध्दुकामः । युद्धाय लेखान्विससर्ज तेभ्यो भयादितास्ते प्रददुर्धनानि ॥ २४ ॥ असौ वराको नयविन्न च सौ परात्मशक्त्यज्ञतया तिमूढः ।
स मृत्यवे केवलमिद्धर्माग्नि पतङ्गवाञ्छति संप्रवेष्टुम् ॥ २५ ॥
युद्धयागकी सज्जा
दूत लौटनेका समाचार पाकर मथुराधिप इन्द्रसेनने उसे भरी राजसभामें अपने कार्यका समाचार देनेके लिए बुलाया था; किन्तु जब उसने देखा कि दूत बिना उत्तरके हो नहीं लौटा है अपितु उसके शरीर पर अपमान की छाप ( अर्धं मुंडन ) भी लगा दी गयी है तो उसके क्षोभका पार न रहा था। राजसभामें विराजमान अनेक राजाओंके समक्ष ही वह देवसेनके ऊपर अत्यन्त कुपित हुआ था ॥ २२ ॥
स्वभावसे हो उसका अभिमान अत्यन्त बढ़ा हुआ था जिसके कारण वह किसीको कुछ समझता ही न था। दूसरेके द्वारा अपमानित होनेपर कैसा अनुभव होता है यह वह स्वप्न में भी न सोच सकता था । अवएव क्रोधके आवेशमें वह बार-बार लम्बी श्वास खींचता था जिससे उनका सारा शरोर काँपता था, तथा प्रत्येक वार क्रोधकी छटा उस पर वैसे ही बढ़ती जाती थी जैसे कि हवा लगने से आगकी ज्वाला लफलफाती हैं ॥ २३ ॥
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मथुराधिपकी क्रोधाग्नि
जो राजा लोग मंत्र आदि शक्तियों, सैन्य आदि बलों तथा पराक्रममें मुझसे बढ़कर है, मैं उनके साथ भी दारुण युद्ध करने के लिए कटिबद्ध था । अतएव जब मैंने युद्ध का आह्वान करते हुए उन्हें पत्र भेजे तो वे सब भयसे पानी-पानी हो गये थे और बिना मांगे ही उन्होंने अतुल सम्पत्ति मेरे चरणों में अर्पित की थी || २४ ॥
तब फिर इस छुद्र ललितपुराधिपतिकी तो बात ही क्या है ? यह नीति शास्त्रसे सर्वथा कोरा है, उसे अपने बलका भी ठीक ज्ञान नहीं तो वह महामूर्ख दूसरोंके विषय में जानेगा ही क्या ? केवल मर जानेके लिए ही यह जलती ज्वालाके समान उद्धत मेरी सेनामें पतंगको तरह घुस कर प्राण दे देना चाहता है ।। २५ ।।
११. म योद्ध कामाः ।
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षोडशः
सर्गः
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