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जितेन्द्रियाश्च व्रतभूषिताङ्गाः क्षमाबलास्ते धृतिबद्धकक्षाः । दयार्थमेव प्रगृहीतसत्या महीं विजल: समसौख्यदुःखाः ॥ ४४ ॥ ग्रामैकरात्रं नगरे च पञ्च समूषुरव्यग्रमनःप्रचाराः। ते किंचिदप्यप्रतिबाधमाना विहारकाले समिता विजहुः ॥ ४५ ॥ नेकप्रकाराकृतिजन्तुमालां चंचूर्यमाणां वसुधा मुनीन्द्राः । पीडां परप्राणिषु नैव चक्रुः पुत्रेषु मातेव दयालवस्ते ॥ ४६ ॥ यस्मिस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्यस्तत्रैव संवासमुखा बभूवः । यत्रोदयं प्राप सहस्ररश्मिर्यातास्ततोऽथा पुरि 'वाप्रसंगाः ॥ ४७ ॥
SHASRHAIRSHASHAMATA
चरमसाधना तथा विहार पांचों इन्द्रियाँ उनको आज्ञाकारिणी हो गयी थी, पंच महाव्रतोंकी सकल सिद्धि ही उनके शरीरका भूषण बन गयी थी। क्षमा उनका बल हो चुकी थी तथा धुतिकी हो उन्होंने कांछ लगा लो थी। यद्यपि उनके लिए सुख तथा दुःख दोनों ही समान थे 17 तो भी वे लौकिक प्राणियों की अवस्थाको समझते थे अतएव उनपर ही दया करके वे देशोंमें बिहार कर रहे थे। तथा इस अवस्थामें सत्य ही उनका साथी था ॥ ४४ ॥
किसी भी ग्राममें वे एक रात (आठ पहर ) ठहरते थे तथा नगरमें अधिकसे अधिक पाँच दिन ही रहते थे। समस्त यात्रामें न उन्हें जानेकी आकुलता थी और न कोई मानसिक चिन्ता ही थी। विहारके समय वे सब ही मुनि एक साथ विहार कर रहे । उन्हें कोई वस्तु या परिस्थिति बाधा न दे सकती थी तथा वे स्वयं किसी भी प्रकारकी असुविधाका अनुभव न करते थे।। ४५ ॥
पृथ्वी अनेक प्रकार तथा आकारके जीव जन्तुओंसे ठसाठस भरी हुई है अतएव वे उसी मार्गपर चलते थे जिसपर लोग चल चुकते थे। वे किसी भी रूपमें संसारके प्राणियोंको थोड़ी-सी भी पीड़ा नहीं देना चाहते थे, क्योंकि उनका हृदय वैसे ही वात्सल्य और दयासे व्याप्त था जैसा कि माताका अपने पुत्रोंपर होता है ।। ४६ ॥
कभी चलते-चलते जिस स्थानपर सूर्य अस्ताचलपर पहुंच जाते थे वहींपर वे आवश्यक विधि समाप्त करके रात्रिको व्यतीत करनेके लिए रुक जाते थे। और ज्योंहो सूर्य उदयाचल पर आ जाते थे त्योंही वे उस स्थानसे दूसरे स्थानको प्रस्थान कर जाते थे। जैसे वायुके साथ कोई भार, धन, आदि नहीं होते हैं उसी प्रकार मुनियोंके साथ भी कोई परिग्रह न रहता था । ४७॥ १. [ ततो वायुरिवाल्पसंगाः ] ।
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