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________________ बराङ्ग चरितम् मष्टान्नपानानि हि योषितश्च भोगांश्च चित्रान्समनुस्मरन्तः। न्यायाजितक्षेमघना वयं तु न योध्दुमीशा इति ते प्रदुद्रुवुः ॥ २४ ॥ विज्ञाय भङ्ग वणिजां तदानीं पुलिन्दसेना प्रबला सती सा। सार्थ कृतार्थ विदितार्थसंख्यमितोऽमुतः प्रारभत प्रलोप्तुम् ॥ २५ ॥ विद्रावयन्ती वणिजां प्रभुत्वं समन्ततः 'प्राय पुलिन्दसेना। तां राजपुत्रः प्रसमोक्ष्य शूरश्चुक्षोप शार्दूल इवातिधृष्टः ॥ २६ ॥ हत्वा प्रदस्यून्समरागतांस्तान्वणिग्जनं तं परिपालयामि । अहोस्विदत्रैव च दस्युसंधैर्हतो मृतः स्वर्गमितः प्रयामि ॥ २७ ॥ लामोसमय-reamRELETTER रहे हैं। किन्तु इसके बाद दूसरे ही क्षण पुलिन्दों का वेग बढ़ा और उनसे दबाये जाने पर सार्थपतिके सैनिक भयसे आकुल होकर बुरी तरह हारने लगे थे ।। २३ ॥ इस प्रकार प्राणोंका संकट उपस्थित होते हो उन्हें स्वादिष्ट मिष्ट-अन्न तथा मधुर पीनेकी वस्तुओंका ख्याल हो आया । था, नाना प्रकारके विचित्र भोग पदार्थोंका स्मरण हो आया तथा अपनी प्राणप्यारियों के वियोगके विचारने उनमें एक सिहरन पैदा कर दी थी। इन सब विचारोंसे प्रेरणा पाकर हम लोग न्यायमार्ग से धन कमाकर शान्ति पूर्वक जीवन बिताने वाले हैं, इन जंगलियोंसे युद्ध में पार नहीं पा सकते।' कहते हुए उन लोगोंने बुरी तरह भागना प्रारम्भ किया था ।। २४ ॥ सार्थसेना का पलायन __ अत्यन्त शक्तिशालिनो पुलिन्दों की विजयी सेनाने सार्थवाहकी सेना को तितर-बितर होकर छिन्न-भिन्न हुआ समझ कर, व्यापार करनेमें सफल होनेके कारण असंख्य सम्पत्ति से परिपूर्ण सार्थ को 'इधरसे, इधरसे' कहकर लूटना, काटना, मारना प्रारम्भ कर दिया था ॥ २५ ॥ ___ सम्पत्ति कमानेमें कुशल वणिकोंके वैभव और प्रभुता को चारों ओरसे आक्रमण करके पुलिन्दोंकी सेना एक एक करके । नष्ट करती जा रही थी । इस लूटमारमें लोन भिल्लसेनाको देखकर प्रबल पराक्रमी राजपुत्रके क्षोभकी सीमा न रही थो । अतएव वह अत्यन्त ढोठ सिंहके समान आवेशमें आकर टूट पड़ा था ॥ २६ ॥ 'युद्ध में उतरे हुए इन नीच दस्युओं को गिन गिनकर मारके विपत्तिमें पड़े वणिकोंकी रक्षा और पालन करूँगा अथवा A [२४१] के लड़ता हुआ इन्हीं नीच दस्युओंके समूह में घुसकर इनके प्रहारों से यहीं मर कर वीर उपयुक्त गति ( स्वर्ग) को यहीं से चला जाऊँगा ॥ २७ ॥ १. [प्राप]। २. [ चुक्षोभ ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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