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बराङ्ग चरितम्
चतुर्दशः सर्गः
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स संप्रहारो रणकर्कशानां वीरव्रणालङ्कृतभासुराणाम् । मत्तद्विपेन्द्रोपमविक्रमाणां पर्यन्तसंघट्टसमो बभूव ॥ १९॥ एवं प्रवृत्ते समरेऽतिघोरे पादाभिधातप्रभवै रजोभिः । संछादितं खं धरणीतलं च सैन्यद्वयं प्रापददृश्यरूपम् ॥ २०॥ महाहवः शोणितचन्दनाक्तो 'बहप्रकाराबदचारुलीलः । क्षरद्विलोलान्त्रनिबद्धमालः सन्ध्याम्बुदाकारवपुर्वभार ॥ २१ ॥ 'असक्क्रिमिश्रोणिरुजांसि भूयस्तान्येव सिन्धूरवषि बभ्रुः । ते चापि योधा द्विगुणाभिरोषाः परस्परं प्रेक्ष्य जिहिंसुरुग्राः ॥ २२ ॥ पुलिन्दकानां वणिजां च घोरं मुहर्तमेवं समयुद्धमासीत् । ततः पुलिन्दरभिभूयमानाः पराबभूवुर्वणिजो भयार्ताः ॥ २३ ॥
प्रहार होने पर उनके विशाल वक्षस्थलों से बहती मोटो तथा तीव्र रक्तधारा वैसी ही परम शोभा पाती थो जैसीकी पहाड़ों के ढालोंपर गेरू मिले पानी की धारा चमकती है ॥ १८ ॥
दोनों तरफके योद्धा रुद्र तथा कठोर भट थे। उनके शरीर वीरों के अनुरूप बड़े बड़े घावोंसे सुशोभित हो रहे थ तो भी मदोन्मत्त हाथी के समान उनके अमित बलमें कोई कमी दष्टिगोचर न होती थी। इन्हों कारणोंसे वह युद्ध प्रलयकालीन युद्धके समान भीषण और दारुण हो उठा था ।। १९ ।।
रण का रूपक उक्त प्रहारमें अत्यन्त घोर युद्ध होनेके कारण दोनों तरफके योद्धाओंके पैरोंसे उड़ायी गयी धूलके बादलोंने पृथ्वी तथा आकाश दोनोंको ढक लिया था फलतः कुछ समयके लिये दोनों सेनाएँ अदृश्य हो गयी थीं ॥ २० ॥
उस समय वर्द्धमान वह महायुद्ध, रक्तरूपी चन्दनसे भूषित ( लाल ) होनेके कारण, नाना प्रकारके उछलते हुऐ मणि मय अंगद भूषणों ( बिजलीके समान ) की चमकसे तथा लटकती हुई चंचल आँतोंरूपी मालाके पड़ जानेके कारण, संध्या समयके रक्त तथा विद्युतमय मेघके समान प्रतीत होता था ॥ २१ ॥
चारों तरफ उड़ती हुई विपुल धूल ही रक्त मिल जाने पर थोड़ी ही देरमें सिन्दूरके रंगसे विभूषित होकर भूमिकी विचित्र शोभा दिखा रही थी। उस समय योद्धा किसी प्रकार एक दूसरेको देख सकते थे। देखते ही उनका क्रोध दुगुना हो जाता था फलतः परस्परमें दारुणसे दारुण प्रहार करते थे ।। २२ ।।
पुलिन्द भटों और सार्थपति के योद्धाओं का घोर युद्ध एक क्षणमें तो ऐसा मालूम देता था मानों दोनों बराबरी से लड़ १क द्विपेन्द्रोत्तम । २. म बाहु। ३. क अस्कृमि । ४. [ श्रेणिरजांसि ] ।
चमचममचायचय
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