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चतुर्थः
वराङ्ग चरितम्
सर्गः
तिरश्ची मानुषाणां च गुणप्रत्यय इष्यते। अवधिः परमो नृणां नेतरेषां प्रकल्प्यते ॥ १७॥ क्षयोपशम एवास्मिन्नवधिज्ञानकारणम् । संक्लेशपरिणामेन तद्वयं च विनश्यति ॥१८॥ ऋजुमतिश्च विज्ञेया विपुला तदनन्तरा। तयोरावरणवत्स्यान्मनःपर्ययसंवृतिः ॥१९॥ यद्योजनपृथक्त्वे च प्राणिनां चेतसि स्थितम् । न शक्तो येन विज्ञातुमजुमत्यावृतेर्बलात् ॥ २० ॥ अर्धतृतीयद्वीपस्य प्राणिनां हृदि वति' तत् । नास्ति शक्तिः परिज्ञातु विपुलावृतिवीर्यतः ।। २१॥
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गुणप्रत्यय अर्थात् साधना-क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान तिर्यंचों और मनुष्योंको होता है ऐसा आगम बतलाते हैं ! किन्तु उत्कृष्ट देशावधिसे भी बड़ा परमावधिज्ञान मनुष्य गतिमें ही हो सकता है। मनुष्योंसे बचे नारकों और तियंचोंकी तो बात ही क्या है । देवोंके भी परमावधिज्ञान नहीं होता है ।। १७ ।।
वास्तवमें कर्मोंका ( सर्वघातीका क्षय और उपशम ) क्षयोपशम ही अवधिज्ञानका प्रधान कारण है और लेकिन जब जब जीवके परिणाम क्रोधादि कुभावोंसे संक्लिष्ट होते हैं तब ही कर्मोका क्षय उपशम दोनों विलीन हो जाते हैं फलतः अवधिज्ञानका भी लोप हो जाता है ।। १८ ।।
मनःपर्ययज्ञानावरणी जीवोंकी मानसिक वृत्ति एक तो अत्यन्त ऋज अर्थात् सरल निर्तित ( सुलझो ) होती है और दूसरी अत्यन्त कुटिल या विपुल अनिवर्तित ( उलझी) होती है। इन दोनों प्रकारकी मानसिक चेष्टाओंको जाननेमें समर्थ चेतना शक्तिको ढंकनेवाला कारण ही चौथा ज्ञानावरणी ( मनःपर्ययज्ञानावरणी) है ॥ २० ॥
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानावरणी कर्मका यही फल होता है कि ज्ञाता योजन पृथक्त्व ( दो, तीन योजनसे ७, ८ योजन तक) में बैठे हुए प्राणियोंके मनोंमें उठनेवाले संकल्प-विकल्पोंको भी जाननेमें समर्थ नहीं होता है। ढाई, ( अर्थात् जम्बूद्वीप, AED धातकी खण्ड द्वीप और आधे पुष्कर ) द्वीपमें रहनेवाले प्राणियोंके हृदयोंमें उठनेवाले विचारों और भावोंको भी जो ज्ञाता नहीं जान सकता है वह सब विपुलमति-मनःपर्ययज्ञानावरणीका ही फल है ।। २१ ।। १. [ हृद्विवति ।
SMETHIS
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