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बराङ्ग चरितम्
उत्कृष्टादप्यसंख्येयान् द्वित्रान्नाथ जघन्यतः । मन:पर्ययावरणाद्भवान् ज्ञातु ं न शक्तवान् । २२ ॥ सर्वद्रव्यस्वभावानां विज्ञात्रों सर्वदा पुनः । संवृणोत्यात्मविज्ञप्ति केवलज्ञानसंवृतिः ॥ २३ ॥
निद्रानिद्रा च निद्रा च प्रचलाप्रचला चला ।
स्त्यानगृद्धिश्च चक्षुश्च अनेत्रावधिदर्शनम् ॥ २४ ॥ केवलेन समाख्यातो दर्शनावृतिकर्मणः । सातासात पुनर्वे च वेदनीयस्य ते स्मृते ।। २५ ।।
यह तो हुआ क्षेत्रकी अपेक्षा किन्तु कालकी अपेक्षासे भी कम से कम दो, तीन भवोंकी बातोंको और अधिक से अधिक असंख्यात भवों में घटी बातोंको जाननेमें असमर्थ होना भी जीव पर मन:पर्ययज्ञानावरणी कर्मका आवरण पड़ जानेसे ही होता है ॥ २२ ॥
केवलज्ञानावरणी
आत्माकी वह विशेष योग्यता जिसके द्वारा यह जीव आदि छहों द्रव्योंके सांगोपांग स्वभाव और पर्यायोंका तीनों लोकों और तीनों कालोंमें युगपत् जानता है, उसी असाधारण पूर्ण चैतन्य स्वरूपको केवलज्ञानावरणी कर्मपूर्ण रूपसे ढंक देता है ।। २३ ।।
दर्शनावरणी
पदार्थोंका दर्शन ( सामान्य प्रतिभास), निद्रा (सोना), निद्रानिद्रा ( अत्यधिक सोना ), प्रचला ( बैठे-बैठे सावाध शयन ), प्रचलाप्रचला ( बक झक सहित प्रचला ), स्त्यानगृद्धि ( सोते-सोते उठकर रुद्रकर्म करना) चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण ( अवधिज्ञानके द्वारा ज्ञात पदार्थोंका सामान्य प्रतिभास न होना ) ॥ २४ ॥
तथा केवल दर्शनावरण ( केवल ज्ञानके द्वारा जानने योग्य पदार्थोंका साधारण प्रतिभास न होना) के कारण नहीं होता । फलतः दर्शनावरणी कर्मके यही नौ भेद होते हैं ।
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वेदनीय
संसारके संयोगोंका अनुभव ( वेदन ) दो ही प्रकारका होता है; सुखरूप ( साता वेदनीय ) या दुःखरूप ( असाता
वेदनीय ॥ २५ ॥
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चतुर्थ:
सर्गः
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