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________________ वरांग चरितम् घ SAKS-JA संसेव्य तादृग्विधमल्पसत्त्वं संजीवमानो' मरणं वरं तत् । देशातिथित्वं ज्वलनप्रवेशो विषाशनं वा क्षममित्यवोचन् ॥ ७५ ॥ तेषां पुनर्मानमदोद्धतानां नृपात्मजानां वचनं निशम्य । प्रत्यूचुरन्ये क्षितिपालपुत्रा औदार्यतो रागविनोदनाय ॥ ७६ ॥ सत्वाधिकः शिल्पकलाविदग्धो विपश्चिदप्युन्नतवंशजो वा । रूपान्विता वा कृतिनः पुरस्तात्प्रधावतीत्येष विनिश्चयो नः ॥ ७७ ॥ पुष्पाणि ताम्बूलविलेपनानि चित्राणि वस्त्राणि विभूषणानि । आ बायोवः प्रविभज्य भुङ्क्ते न तस्य हानिर्भवतां विनाशः ॥ ७८ ॥ इस प्रकारके साधारण शक्तिशाली व्यक्तिको-जो कि आज राजा बन बैठा है सेवा करके तथा उसे अपना प्रभु मानकर जीवित रहने से तो हम लोगों का मर जाना ही अच्छा है, यदि शस्त्र से मरना कष्टकर है तो विष खाकर या आगकी ज्वाला में कूदकर प्राण गंवाना चाहिये । यदि यह भी शक्य नहीं है तो इस देश को छोड़कर देश देश मारा फिरना भी उपयुक्त होगा ।। ७५ ।। गुणज्ञता का उपदेश मिथ्या अहंकार के नशे में आकर उक्त प्रकार से अशिष्ट व्यवहार करनेवाले उन राजपुत्रों की उक्त ईर्ष्यामय उक्तियों को सुनकर दूसरे राजपुत्रोंने जो कि बड़े राजाओं के पुत्र थे तथा अधिक विशाल हृदय ही नहीं गम्भीर भी थे उनके निराशाजन्य क्रोधसे मनोविनोद करनेकी इच्छा से निम्न वचन कहे थे ।। ७६ ।। माना कि तुम अधिक पराक्रमी हो, शिल्प आदि समस्त कलाओंका पंडित हो इतना ही नहीं विद्वान् भी हो और उच्च कुल में उत्पन्न भी हुये हो, सुन्दर और आकर्षक रूपवान अथवा रूपोत्तम हो, तो भी हम लोगों का दृढ़ निश्चय है कि ऐसे सुयोग्य व्यक्तिको भी पुण्यात्मा के आगे-आगे दौड़ना पड़ता है । यतः राजकुमार बरांग समस्त पुण्यात्मा लोगोंके अगुआ हैं इसीलिए राजा होने योग्य हैं ।। ७७ ।। इसीलिए बालकपन से ही आप लोग उसके सौभाग्यके कारण सुलभ सुन्दर वस्त्र, अद्भुत आभूषण, फूल मालाएँ' पान पत्ता, सुगन्धित तेल, उबटन, आदिभो उससे बाँट बांटकर भोगते थे । किन्तु इससे उसकी कोई हानि नहीं हुई क्योंकि यह सब भोग उसके भाग्य में लिखे हैं, हां, आप लोगोंका सत्यानाश अवश्य हो गया है क्योंकि आज आप लोग किसी काम के नहीं हैं । १. [ संजीवतां नो ] । २. म अवोचत् । ३. म चौदार्यतो । Jain Education International For Private & Personal Use Only एकादश: सर्गः [१९२ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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