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________________ वराङ्ग चरितम् दशमः सर्गः व्यवस्थितानेव शशाङ्कसूयौं स्वान्स्वान्प्रदेशानवभासयेते । लोकं ह्यलोकं युगपत्समस्तं ते ज्ञानभासा प्रतिभासयन्ति ॥ ४१॥ सम्यक्त्वसज्ज्ञानचरित्रवीर्या निर्बाधता चाप्यवगाहनं च। अगौरवालाघवसूक्ष्मता च सिद्धष्वथाष्टौ हि गुणा विशिष्टाः॥ ४२ ।। मध्वक्ततोक्षणास्यवलेहनेन समानमुक्तं सुखमिन्द्रियाणाम् । दशाङ्गभोगप्रभवं सुखं यद्विषाक्तमृष्टाशनभुक्तितुल्यम् ॥ ४३ ॥ सुरेश्वराणामसकृदयुतीनां मनोज़नानासनविक्रियाणाम् । यदिन्द्रियार्थप्रभवं हि सौख्यं दग्धव्रणे चन्दनलेपतुल्यम् ॥४४॥ विच्छिन्नकर्माष्टकबन्धनानां त्रिलोकचूडामणिधिष्ठितानाम् । न चास्ति राजन्नुपमा सुखस्य तथापि किंचिच्छण संप्रवक्ष्ये ॥ ४५ ॥ दीप्ति तथा गुणियोंके समस्त असाधारण गुण भो, लोकोत्तर सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, आदि गुणोंके द्वारा कर्मोका क्षय हो जाने । पर प्रकट हुए आत्माके शुद्ध स्वरूप सामने न जाने आसानी से कहाँ छिप जाते हैं ।। ४० ॥ चन्द्रमा और सूर्य उपयुक्त आकारमें व्यवस्थित अपने-अपने प्रदेशोंको हो प्रकाशित करते हैं किन्तु ज्ञानको पदार्थों के ज्योतिसे भासमान सिद्ध जीव एक ही साथ लोक और अलोकमें स्थित समस्त पदार्थों को स्पष्ट रूपसे प्रकट कर देते हैं ।। ४१ ।। सम्यक्त्व, ( अनन्त दर्शन ) सम्यक्ज्ञान, ( अनन्त ज्ञान ) सम्यकचारित्र (अनन्त सुख ) वीर्य (अनन्त शक्ति) निर्वाधता, (किसी वस्तुसे न रुकना और न अन्य किसीको रोकना) अवगाहना, ( शरार को छाया) अगुरुलघु ( गौरव और लधुतासे होनता ) तथा सूक्ष्म ये आठ लोकोत्तर गुण सिद्धोंमें होते हैं। संसार-मुक्त सुख तुलना इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोंका भोग करनेसे जो सुख प्राप्त होता है उसकी तुलना मधुसे लिपटो तलवारके चाटनेके साथ की जाती है । दश प्रकारके कल्पवृक्षोंके कारण भोगभूमिमें जो ऐकान्तिक सुख प्राप्त होते हैं उन्हें भी विष मिले मधुर पक्वान्नोंके भोजनके समान आचार्यों ने कहा है ।। ४३ ।। विकिया ऋद्धिके द्वारा मन चाहे शरीर धारण करने में जो आनन्द आता है, सतत सर्वदा स्थायी कान्ति और दीप्तिके H अधिपति इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवोंके सुख भोग तथा अन्य समस्त भोगोंको इन्द्रियों द्वारा भोगनेमें जो रस आता है वह भी वैसा है जैसा कि जलनेसे हुए घाव पर चन्दनका लेप ।। ४४ ॥ किन्तु अनादिकालसे बँधे आठों कर्मोंके बन्धनोंको खण्ड-खण्ड कर देनेके कारण तीनों लोकोंके चूडामणिके समान उन्नत ॥ २२ For Private & Personal Use Only [१६९] Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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