SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वरांग चरितम् तिर्यग्भ्य उत्कृष्टसुखा नराइच तेभ्यो नरेभ्यः सुखिनो नरेन्द्राः । तेभ्योऽधिका भोगभुवो मनुष्याः सिद्धास्ततोऽनन्तसुखा भवन्ति ॥ ४६ ॥ ज्योतिर्गणा व्यन्तरदेवताभ्यस्तेभ्योऽधिकास्ते भवनाधिवासाः । सौधर्मजाताः सुखिनस्तु तेभ्यस्तेभ्यश्च तत्सौख्यतमास्तघोर्ध्वम् ॥ ४७ ॥ ग्रैवेयकाद्याः सुखिनस्तु तेभ्यस्तेभ्यो विशिष्टा विजयेश्वराद्याः । तेभ्यस्तु सिद्धार्थनिवासिदेवास्तेभ्योऽतुलात्यन्तसुखास्तु सिद्धाः ॥ ४८ ॥ किमम्बरं रागविवजितानां किं भोजनैः संशमितक्षुषानाम् । जलेन वा कि स्वपिपासितानां किमौषधैः कार्यमरोगिणां च ॥ ४९ ॥ स्थान पर जा कर विराजनेवाले सिद्ध जीवोंके अतीन्द्रिय सुखकी हे राजन् ! कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती है । उस सुखके विषय में कुछ कहता हूँ आप सुनें ॥ ४५ ॥ सिद्ध-सुख तिर्यञ्च जीवोंको जो कुछ सुख प्राप्त होता है, मनुष्योंका सुख उससे बहुत बढ़कर है । साधारण मनुष्यों की अपेक्षा आप राजालोग अधिक सुखी होते हैं । कर्मभूमिके चक्रवर्ती आदि से भी भोग भूमिके मनुष्य बहुत अधिक सुखी होते हैं, किन्तु सिद्धजीव भोगभूमियोंसे भी अनन्त गुने सुखी होते हैं ।। ४६ ।। देवगति में व्यन्तर सबसे कम सुखी हैं। ज्योतिषी देव उनमे भो अधिक सुखी होते हैं, भवनवासी देवोंके सुखका परिमाण ज्योतिषियों से बहुत आगे है, किन्तु सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न देवोंका सुख भवनवासियोंसे भी बढ़कर है इस प्रकार कल्पवासियों में ज्यों-ज्यों ऊपर जाइयेगा त्यों-त्यों सुखकी मात्रा बढ़ती ही जायगी ॥ ४७ ॥ अच्युत कल्पके देवोंसे ग्रैवेयकवासी देव अधिक सुखी हैं। विजय, जयन्त, वैजयन्त तथा अपराजितवासी देवों का सुख इनसे भी बढ़कर है तथा इनसे बहुत बढ़कर सर्वार्थसिद्धिवासियों का सुख है किन्तु सिद्ध जीवोंके चरम और परम सुखको तो उक्त सांसारिक सुखसे कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है ।। ४८ ।। जिन्होंने राग आदि भावोंको नष्ट कर दिया है उन्हें कपड़ोंसे क्या प्रयोजन ? जिनका क्षुधा वेदनीय कर्म सदा के लिये शान्त हो गया है, भोजन उनके किस काम आयेगा ? प्यासकी ज्वाला जिनमें वुझ गयो है पानी उनपर क्या प्रभाव करेगा ? समस्त रोगोंको जिन्होंने दूर भगा दिया है औषध उनके किस काम आयेगी ॥ ४९ ॥ For Private & Personal Use Only Jan Education International DRCM दशमः सर्गः [१७०] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy