SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -m द्वितीयः वराङ्ग चरितम् तथापि कर्माणि बहनि तानि शुभप्रदानान्यशुभप्रदानि । ऐकान्तिकं यन्निरुपद्रवं च सुखं लभन्ते कथमत्र जीवाः ॥१॥ दानं तपः संयमदर्शनानि शौचं दमो भूतदया च मेत्री। क्षान्तिश्च सत्यं समता ह्यसंग इत्येवमाद्यं सुखहेतुभूतम् ॥ २॥ जन्मान्तरे तप्ततपःप्रभावात्सत्पात्रदानाज्जिनपूजनाच्च । प्राणानुकम्पोद्भवभावनाया जन्मन्यथास्मिन्सुखिनो भवन्ति ।। ८३ ॥ किमत्र चित्रर्बहुभिः प्रलापैः सुखाथिभिः पापरतिविहेया । पापं पुनर्जीवविहिंसनेन तन्मलतो दुःखमवाप्नुवन्ति ॥ ८४ ॥ सर्गः TeamPawHEARPAHATHere-weaper - se सुख, सौभाग्यको प्राप्त करनेके लिए मारे-मारे फिरते हैं, उनका सम्पूर्ण प्रयत्न सारे संसारके सामने केवल हास्यास्पद होता है और परिणाम तो अन्तमें अत्यन्त कडुवा ( दुखदायी ) होता ही है ।। ८० ।। तोभी सांसारिक समस्त कर्मों में बहुत कुछ कर्म ऐसे हैं जो शुभफल ही देते हैं, और अत्यधिक ऐसे भी हैं जो अशुभ । ही फल देते हैं। इस संसारमें रहते हुए भी जीव विघ्नवाधा रहित ऐकान्तिक शुद्ध सुखको ही प्राप्त करें, ऐसा कैसे हो सकता है ।। ८१ ।। सत्पात्रको दान देना, अन्तरंग, बहिरंग तप करना, मन, इन्द्रियादिका संयम, सात तत्त्वोंका सच्चा श्रद्धालु होना, द्रव्य और भाव शौचका पालन, इन्द्रिय वृत्तियोंका निग्रह, प्राणिमात्रकी दया, जीवमात्रसे मैत्री ( मित्र समान हितैषिता) भाव, प्रतिशोध लेनेमें समर्थ होते हुए भी क्षमा, सत्यवादिता, समता, परिमित-परिग्रह या परिग्रहहीनता, आदि ऐसे कर्म हैं जिनका फल सुख ही होता है ।। ८२ ।। जन्म-जन्मान्तरोंमें प्रमाद त्यागकर तपे गये तपके प्रभावसे, सत्पात्रोंको दिये गये दानके परिपाकसे, भावपूर्वक की गयी। जिनेन्द्रदेवकी पूजनके प्रसादसे अथवा प्राणिमात्रपर किये गये दयाभावकी सतत भावनासे उत्पन्न सुफलका उदय होनेपर ही लोग । इस जन्ममें सुखी होते हैं ।। ८३ ।। - इस समय नाना प्रकारकी अद्भुत् दार्शनिक चर्चाओंको बढ़ा चढ़ाकर कहनेसे क्या लाभ है ? जो इस भव और परभवमें सुखके इच्छुक हैं उन्हें पापमयकर्म करनेके चावको छोड़ देना चाहिये । पाप भी प्राणियोंकी द्रव्य या भाव हिंसा करनेसे होता है । । और इस पापरूपी मूलसे ही दुखरूपी फलोंको जीव प्राप्त करते हैं ।। ८४ ।। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only SERAIPMARATmsymsans [३८] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy