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________________ वराङ्ग द्वितीयः सर्गः चरितम् IPATRARAMATKAAREMIRATREATHE-SHAHATTARAIMARASHApnees वराङ्गनामानमनङ्गलोलं क्षितीन्द्रपुत्र्यश्च मनोजरूपाः । समीक्ष्य बन्धनपि हर्षपूर्णान्पोरान्समेतान् कथयांबभूवुः ॥ ७६ ॥ इमे वयं चापि हि जीवलोके समाननेत्रोदरपाणिपादाः । ऐश्वर्यकान्तिद्युतिवीर्यरूपैः कथं विशिष्टा इति केचिदूचुः ॥ ७७ ॥ कि न श्रुतं वाक्यमिदं भवद्भिर्जगत्यसाधारणहेतुभूतम् । स्वकर्मनिष्पत्तिफलप्रपञ्चं दुःखं सुखं वेति च लोकसिद्धम् ॥ ७८ ॥ धर्मात्सुखं पापफलाच्च दुःखं सुखं स्वपञ्चेन्द्रियकामलब्धिः । दुःखं पुनस्तद्विपरीतमुक्तमितीह सर्वैरपि किं न वेद्यम् ।। ७९ ॥ पूर्व त्वकृत्वा सुकृतं नरा ये परश्रियं प्राप्तुमन्ति' मूढाः । तेषां श्रमं केवलमेव लोके हास्यं महत्तच्च विपाकतिक्तम् ॥ ८०॥ कामदेवके समान सून्दर, सूकूमार और सुभग युवराज वराङ्गको, हदयमें घर कर लेनेवाली रूपराशिसे युक्त भरतखण्डक प्रधान राजाओंकी पुत्रियोंको, शरीर और मनमें न समानेवाले हर्षसे परिपूर्ण बन्ध-बान्धवोंको तथा अभिषेक मण्डपमें एकत्रित नागरिकोंको देखकर लोगोंके मुखसे अधोलिखित उद्गार निकल पड़े थे ।। ७६ ।। पुण्यफल यद्यपि इस संसारमें उत्पन्न हम साधारण स्त्री पुरुषों, यवराज वराङ्ग, राजकूमारियों, राजपुरुषों आदिके आंख, कान, पेट, हाथ, पैर प्रभृति सर्वथा समान हैं, तो भी इनके ऐश्वर्य, कान्ति, ओज, प्रताप, पराक्रम, सौन्दर्य, आदि सब ही गुण हमलोगोंसे सर्वथा विशिष्ट क्यों हैं ? ऐसा कुछ आपसमें पूछते थे ।। ७७ ।। तब दूसरे कहते थे 'क्या आपने संसारमें होनेवाले समस्त कार्योंके असाधारण ( उपादान) कारणको स्पष्ट बतानेवाला यह वाक्य नहीं सुना है-"सांसारिक समस्त सुख अथवा दुख अपने-अपने कर्मोसे उत्पन्न हुए फलका विस्तार मात्र है।" संसारका प्रत्येक घटना इसी सिद्धान्तको पुष्ट करती है ।। ७८ ॥ सर्वसाधारणको इतना ज्ञान तो होना ही चाहिये कि धर्माचरणसे सुखप्राप्ति होती है तथा पापकर्मोक फलका उदय होनेपर दुख होता है । स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियोंको प्रिय विषयोंकी प्राप्तिसे सूख होता है और उसके उल्टे अर्थात् पाँचों इन्द्रियोंको अप्रिय विषयोंकी प्राप्तिको ही दुख कहते हैं ।। ७९ ॥ इस संसारमें जिन मूर्ख प्राणियोंने पूर्व भवमें कोई शुभकर्म नहीं किये हैं तो भी दूसरे भाग्यशालियों की सम्पत्तिके समान १. म अन्ति । For Private & Personal Use Only [३७] ETA Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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