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________________ वराङ्ग चरितम् ALAGEचयाचा आतप-अथवा आतापन योग का तात्पर्य है कि ग्रीष्म ऋतु में धूपमें खड़े होकर बैठ कर ध्यान करना । साधु-बहुत समय से दीक्षित मुनिको साधु कहते हैं । ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का पूर्ण निरोध, ६ आवश्यक, स्नान त्याग, भूमि शयन, वस्त्र त्याग, केशलौञ्च, एकाशन, खड़े आहार तथा दंत-धावन त्याग ये २८ साधु परमेष्ठीके गुण हैं। आवश्यक-मुनियोंके लिए प्रतिदिन अनिवार्य रूप से कारणीय कार्यों को आवश्यक कहते हैं । ये छह हैं-१ सामायिक, २ बंदना, ३ स्तुति, ४ प्रतिक्रमण (कृत दोषों के लिए पश्चाताप) ५ प्रत्याख्यान तथा ६ कायोत्सर्ग । सल्लेखना-उपसर्ग, दुर्मिक्ष, असाध्य रोग अथवा मृत्युके आने पर भली भांति काय तथा कषाय की शुद्धि को सल्लेखना कहते हैं। उक्त प्रकार से मृत्यु के संयोग उपस्थित होने पर गृहस्थ तथा मुनि दोनों ही धार्मिक विधिपूर्वक शरीरको छोड़ते हैं | समाधिमरण करने वाला व्यक्ति आहार पानादि यथा सुविधा घटाता जाता है अथवा सर्वथा छोड़ देता है । सबसे क्षमा याचना करता है तथा सबको क्षमा देता भी है । उसका पूरा समय ध्यान तथा तत्त्व चर्चामें ही बीतता है | १- जीने या २- मरनेकी इच्छा करने ३- मित्रों से मोह करने ४- भुक्त सुखोंकी स्मृति ५-अगले भव के लिए कामना करने से सल्लेखनामें दोष लगता है । प्रायोपगमन-ऐसी सल्लेखना जिसमें व्यक्ति न स्वयं अपनी चिकित्सा करता है न दूसरे को करने देता है, ध्यानमें ही स्थिर रहता है और शरीरको भी स्थिर रखता है । आराधना-आत्यन्तिकी भक्ति अथवा सेवा को आराधना कहते हैं । सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तपकी आराधनाके भेदसे यह । चार प्रकार की होती है । अनायतन-धर्माचरण को शिथिल करने वाले निमित्तों को अनायतन कहते हैं । कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र तथा इन तीनों के भक्त ये छह अनायतन होते हैं । IR [६९१] Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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