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वराङ्ग
चरितम्
त्रायस्त्रिंश-मंत्री, पुरोहित, आदि के समान देव ।
परीषह-सब प्रकारसे सहना परीषह है । कर्म निर्जरा के लिए ये सहे जाते हैं । भूख, प्यास, शीत, उष्ण, देश-मशक, नग्नता, अरति. स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचा, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान तथा अदर्शन ये २२ परीषह हैं।
मागध-भरत ऐरावत क्षेत्रोंके समुद्र तथा सीता सीतोदा नदीके जलमें स्थित द्वीपोंका नाम है । भरत क्षेत्रके दक्षिणी किनारेसे संख्यात योजनकी दूरी पर यह स्थित है । इसका स्वामी मागध देव है।।
आर्यिका-उदिष्टत्याग प्रतिमाकी धारिणी स्त्रीको आर्यिका कहते हैं । द्रव्य स्त्रीके त्यागकी यह चरम रीमा है । यह सफेद साड़ी पहिनती है, पीछी कमण्डल धारण करती हैं । बैठ कर आहार करती हैं । सदैव शास्त्र स्वाध्याय तथा संयममें रत रहती हैं।
गुणस्थान-मोह और योगके निमित्तसे आत्माके गुण सम्यक-दर्शन ज्ञान चारित्र के कम-बढ पनेके अनुसार होनेवाली अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं।
गुप्ति-जिसके द्वारा संसारमें फंसानेवाली बातोंसे आत्माका रक्षण हो उसे गुप्ति कहते हैं । मन-वचन-काय गुप्तिके भेदोंसे यह तीन -प्रकारकी है।
धर्म-जो इष्ट स्थान पर रखे या ले जाय उसे धर्म कहते हैं । उत्कृष्ट क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यक भेदसे दस प्रकारका है ।
चौदह मार्गणा-जिन विशेष गुणोंके आधारसे जीवोंका विवेचन, ज्ञान तथा शोध की जाय उनको मार्गणा कहते हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व तथा आहारके भेदसे यह चौदह प्रकारकी है। _____ अष्ट अनुयोग-पुलाकादि मुनियोंका जिन विशेषताओं के आधार पर विवेचन होता है उन्हें अनुयोग कहते हैं । संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्या, उपपाद तथा स्थान के भेद से यह आठ प्रकार का होता है ।
आस्रव-शुभ अशुभ कर्मों के आने के लिए द्वार भूत काय, वचन और मन की क्रियाएं आम्रव हैं । संवर-आस्रव भूत योगों का निरोध ही संवर है । निर्जरा-आंशिक रूप से कर्मों के क्षय को निर्जरा कहते हैं। श्रमण-जो शत्रु-मित्र, सुख-दुख, आदर-निरादर, लोष्ठ-काञ्चन, आदिमें समभाव रखते हैं वे महाव्रती साधु श्रमण कहलाते हैं।
शल्य-शरीरमें कील के समान मनमें चुभने वाले कोक उदयसे होने वाले विकार ही शल्य हैं । माया, निदान और मिथ्यात्व के भेद से यह तीन प्रकार की है।
आचार्य-साधुओं को दीक्षा तथा शिक्षा देकर जो व्रत्तों का आचरण करायें उन्हें आचार्य कहते हैं । १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक तथा ३ गुप्ति का पालन; आचार्य परमेष्ठी के ये ३६ गुण हैं ।
उपाध्याय-जिसके पास जाकर मोक्षमार्गक साधक शास्त्रोंका अध्ययन किया जाता है उन्हें उपाध्याय कहते हैं । ११ अंग तथा चौदह पूर्वो का ज्ञान ये २५ उपाध्याय परमेष्ठीके गुण हैं ।
चतुर्विध संघ-ऋषि, मुनी, यति तथा अनगार इन चार प्रकार के साधुओं के समूहको संघ कहते हैं ।
मन्यमामामा-
मयमायरा
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