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बराङ्ग
चरितम्
उपमान-तुलनाके वर्णनमें पदार्थ, सदृशपदार्थ, सदृशधर्म तथा सदृशता वाचक शब्द ये चार अंग होते हैं । इनमें सदृशपदार्थको उपमान कहते हैं । द्रव्यमानके दो भेद हैं संख्या मान तथा उपमा अथवा उपमान | पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर तथा घनलोकके भेदसे उपमान आठ प्रकारका है ।
गुणवतअहिंसा आदि पांच व्रतोंको गुणित ( बढ़ाने ) करनेवाले व्रतोंको गुणव्रत कहते हैं । दिग, देश तथा अनर्थदण्ड-विरतिके भेदसे ये तीन प्रकारके हैं।
शिक्षाव्रत-महाव्रतोंकी शिक्षा देनेवाले व्रतोंको शिक्षाव्रत कहते हैं सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथि संविभाग तथा भोगोपभोग परिमाण के भेदसे वे चार प्रकारके हैं ।
अष्टदोष-सम्यक् दर्शनके शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, अपकर्षण, चांचल्य, ईर्ष्या तथा निन्दा दोषोंको अष्टदोष कहते हैं।
तप-आत्माके शुद्ध स्वरूप को लाने (तपाने) के लिए अथवा कर्मकि क्षयके लिए किये गये प्रशस्त प्रयत्नको तप कहते हैं । बाह्य तथा अन्तरंगके भेदसे यह दो प्रकारका है । इनमें भी प्रत्येकके छह छह भेद हैं।
समिति-सावधानी पूर्वक उठने-बैठने बोलने आदि आचरण नियमोंको समिति कहते हैं । ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप तथा उत्सर्गक भेदसे यह पांच प्रकारकी है ।
गुप्ति-आत्म नियंत्रणको गुप्ति कहते हैं । इसके तीन भेद हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति ।
विक्रिया-जिसके द्वारा शरीरको विविध रूपोंमें बदला जा सके उस सामर्थ्यको विक्रिया कहते हैं । यह दो प्रकारसे होती है अपने मूल शरीरको ही विविध रूपसे परिणत करना अर्थात् अपृथक् विक्रिया और मूल शरीरको तदवस्थ रखते हुए विविध रूप धारण करना अर्थात् पृथक् विक्रिया ।
सागर-उपमा मानके दूसरे भेदका नाम सागर है। क्योंकि समुद्रकी उपमा देकर इसमें प्रमाण बताया जाता है | सागर प्रमाणसे 'चौगुने लवणसागर धन एक षष्ठ ( लवण सागर ४+१/६) इष्ट है। पल्यके समान सागर भी व्यवहार, उद्धार तथा अद्धाके भेदसे तीन प्रकारका है । व्यवहार पल्यके प्रमाणमें दश कोड़ाकोडि (करोड़ गुणित करोड़) का गुणा करने पर व्यवहारसागरका प्रमाण आयगा । इसी प्रकार उद्धार सागर तथा अद्धा सागरको समझना चाहिये ।
अतीन्द्रिय-संसारमें इन्द्रियोंके द्वारा ही अनुभव होता है, किन्तु इन्द्रियां कर्मजन्य हैं । फलतः जब कर्मोंका नाश करके मोक्षको यह जीव प्राप्त करता है तो वह सहज अर्थात् निरपेक्ष (अतीन्द्रिय ) ज्ञानादिका सागर हो जाता है ।
दशम सर्ग व्यतिरेक-अभाव रूप व्यप्तिको व्यतिरेक कहते हैं । अर्थात् जिसके न होने पर जो न हो जैसे 'धर्मके न होने पर शान्ति न होना'।
लेश्या-आत्माको कर्मोंसे लिप्त करने वाली मन, वचन कायकी प्रवृत्तियों तथा तदनुसारी शरीरके रंगको लेश्या कहते हैं । कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म तथा शुक्लके भेदसे यह छह प्रकारकी है । पूर्व तीन अशुभ हैं और उत्तर तीन शुभ मानी जाती हैं।
पाषण्ड-वर्तमानमें इसका प्रयोग बाह्य आचरणके-दिखावेके लिए होता है, अर्थात् दिखावटी या झूठा धर्माचरण इसका तात्पर्य है। किन्तु प्राचीन आर्ष ग्रन्थों तथा अशोकके शिलालेखोंमें भी इसका प्रयोग है । प्रकरण तथा परिस्थितियोंका ख्याल करने पर ऐसा लगता है U कि उस समय 'पाखण्ड' शब्दसे साधु, मत या साधना-मार्ग समझा जाता था ।
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न्यायालयाच्या
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