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________________ वराङ्ग चरितम् दृष्टिमोहवृता जीवाः सद्भावं न च जानते । अलब्धकर्मसद्भावा लभन्ते नैव निर्वृतिम् ॥ ६३ ॥ मानस्तम्भितचेतसः । तीव्रक्रोधा हिसंदष्टा माविष्टान्ता लोभरागान्धदृष्टयः ॥ ६४ ॥ चारित्रमोहं बघ्नन्ति जीवा दुरितबुद्धयः । तेन कर्मविपाकेन क्लिश्यन्ते भववत्सु ॥ ६५ ॥ आद्यः क्रोधोदयस्तीत्रः शिलाभेदसमो मतः । नोपैत्युपशमं तेन जीवो जन्मान्तरेष्वपि ॥ ६६ ॥ जिन जीवोंकी चेतनाको दर्शनमोहनीयने चाँप रखा है वे लोग शुभ भाव कैसे होते हैं ? इसका उन्हें आभास भी नहीं होता है। न तो उन्हें लब्धि ( सम्यक्त्व प्राप्त करनेका अवसर ) ही प्राप्त होती है और न उन्हें शुभकर्म करने तथा भला चेतनेकी प्रवृत्ति ही होती है। परिणाम यह होता है कि उन्हें कभी भी संसार शरीरसे वैराग्य नहीं होता है; मुक्तिकी तो बात ही क्या है ? ।। ६३ ।। चारित्रमोहनोय जिन्हें तीव्रतम क्रोधरूपी कृष्णसर्पने डस लिया है, जिनके मनको मानको बाढ़ने हेय, उपादेयके विवेकसे वंचित करके निश्चेतन कर दिया है, जिनका अन्तःकरण मायारूपी मैलसे सर्वथा मलीन हो गया है और लोभरूपी कालिमाने जिनकी आँखोंको अन्धा कर दिया है ॥ ६४ ॥ Jain Education International इस प्रकार सदा ही पाप चिन्तामें मग्न रहनेवाले लोग ही चारित्रमोहनीय कर्मका दृढ़ बन्ध करते हैं । और यही चारित्रमोहनीय परिपक्व होकर अपनी लीला दिखाता है जिसके कारण उक्त प्रकारके जीव संसारमार्ग में नाना प्रकार के क्लेश उठाते हैं ।। ६५ ।। क्रोध निदर्शन प्रथम प्रकारके अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोधका जो संस्कार आत्मापर पड़ता है वह इतना तीव्र होता है कि उसकी उपमा पत्थरपर खोदी गयी रेखासे दी जाती है। यही कारण है कि ये क्रोधादि जन्म-जन्मान्तरोंमें भी जाकर शान्त नहीं होते हैं और निमित्त सामने आते हो भड़क उठते हैं ।। ६६ ।। For Private & Personal Use Only चतुर्थः सर्गः [ ७१] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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