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वराङ्ग चरितम्
द्वितीयः सर्गः
व्यतीत्य देशान्वहरत्नकोशं पुरं समासाद्य गुणप्रकाशम् । विलोकमाना विविविभत्या विलोक्यमानास्त्वथ पौरवगैः॥४२॥ संप्राप्य राजालयमुत्तमद्धौं सामन्तसेनानिचितान्तरालम् । तद्वारपालैरुपनीयमानाः सिंहासनस्थं ददृशुर्नरेन्द्रम् ॥ ४३ ॥ अभ्यागतानाप्ततमान्विलोक्य वाग्दानमानेरभिपूज्य सम्यक् । नराधिपः प्रश्नकुतूहलेन पप्रच्छ तान्प्राग्विदितार्थतत्त्वः ॥ ४४ ॥ श्रीधर्मसेनेन यथोपदिष्टाः पष्टाः पुनस्ते धृतिषेणनाम्ना।। सामप्रयोगैरुपनीतमर्थ स्वकार्यसिद्धयर्थममु समूचुः॥ ४५ ॥
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अनेक देशोंको पार करती हुई वह सेना अपनी यात्राके अन्तमें उस नगरके निकट पहुँची जो अपनी सम्पत्ति, सुव्यवस्था, आदि विशेषताओंके लिए विख्यात थी और जिसमें रत्नभण्डार और कोशोंकी प्रचुरता थी। अपनी सम्पत्ति और सजावटसे जगमगाती हुई उस सेनाने जब समृद्धिपुरीमें प्रवेश किया तब नगरके सबही स्त्री पुरुष टकटकी लगाये उसकी ओर ताक रहे थे ॥ ४२ ॥
इस प्रकार सेनाके साथ चारों मंत्री उस राजभवनपर पहँचे, जो अपनी साज-सज्जा और ऋद्धिमें अनुपम था। जिसके विशाल आंगनोंके कोने कोनेमें सामन्त राजाओंको सेना ठसाठस भरी थी। ऐसे राजभवनके प्रवेश द्वारपर ही उनकी अगवानी हुई और द्वारपालके द्वारा भीतर ले जाये जानेपर उन्होंने सिंहासनपर विराजमान महाराज धृतिषेणके दर्शन किये ।। ४३ ॥
महाराज धर्मसेन के अत्यन्त विश्वस्त और अन्तरंग व्यक्ति महामात्योंको ही अतिथियों के रूपमें पाकर महाराज धृतिषणने उनकी मर्यादाके अनुकूल स्वयं ही उनकी 'आइये' कहकर अगवानी की तथा कुशल समाचार पूछनेसे लेकर अन्य सब ही स्वागत सत्कार करके उनका सम्मान किया । यद्यपि उनके इस प्रकार आनेके प्रयोजन ( कुमार वराङ्गका विवाह ) पहिलेसे ही जानते थे तो भी कुछ न कुछ पूछनेके ही लिए उनसे आगमनका कारण पूछा ।। ४४ ।।
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विवाह प्रस्ताव समृद्धिपुरीके अधिपति द्वारा उक्त प्रकारसे पूछे जानेपर मंत्रियोंने देखा कि उनका काम साम, दाम, दण्डादि छह उपायोंमेंसे, सामके प्रयोगसे ही अधिक सुन्दरतासे सिद्ध हो सकता है। फलतः उन्होंने महाराज धर्मसेनके उपदेशके अनुसार ही अपनी विवाह वार्ताको सफल करनेके लिये निम्न प्रकारसे महाराज धृतिषेणसे निवेदन किया था ।। ४५ ॥ १. क नृपेन्द्रम् ।
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