SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वराङ्ग द्वितीय चरितम् ततो नृपेणाप्रतिपौरुषेण वचोहरः सामयुतैर्वचोभिः । विसर्जितः साधु कृतात्मकृत्यो येनागतस्तेन पथा निवृत्तः ॥ ३८ ॥ दूताः परे तेऽपि च संनिवृत्ताः पतिः स्वमारोपितकार्यभाराः'। राज्ञे समूचुः स्वमतप्रसिद्धि प्रमोदपूर्वा गमनप्रतीक्ष्णाम् ॥ ३९ ॥ प्रत्यागतानां स वचोहराणां निशम्य वाणी च समीक्ष्य लेखम् । स्वान्मन्त्रिणो मन्त्रविनिश्चयज्ञान् शशास राजा धृतिषेणपाश्र्वम् ॥ ४० ॥ तैः संवजद्धिबहबन्धुमित्रः सहेव याता नरदेवसेना। बभौ चतुभिर्नपमन्त्रिमुख्यैः सुरेन्द्रसेनेव च लोकपालैः ॥ ४१ ॥ PREPARI आँखोंके आकार तथा रंग, अपना स्वागत, सत्कार तथा भेट आदिसे यह विश्वास हो गया था कि उसका उद्योग सफल हुए बिना रह ही नहीं सकता है ।। ३७ ॥ इसके उपरान्त अनुपम पराक्रमी महाराज धृतिषणने आदर और प्रीतिसे मधुर तथा शान्त बातें करके उस राजदूतको भलीभाँति विदा कर दिया। वह भी अपने कर्तव्यको योग्यतापूर्वक पूरा करके उत्तमपुरको उसी मार्गसे लौट गया जिससे आया था ।। ३८॥ दूसरे दूत लोग जो कि स्वामीके कार्यको करनेका भार अपने ऊपर लेकर बाहर गये थे वे भी क्रमशः उत्तमपुरको लौटे, और अपने-अपने कार्यमें उन्होंने कहाँतक सफलता प्राप्त की थी यह राजाको विगतवार सुनाया, जिसे सुनकर पहिले तो परम आनन्द होता था और पीछेसे वरयात्राकी प्रेरणा मिलती थी ।। ३९ ॥ महाराज धर्मसेनने सबही लौटकर आये दूतोंके उत्तर लेखोंको पढ़ा और उससे अधिक ध्यानपूर्वक उनके यात्रा विवरणोंको सुना। अन्तमें अपने मंत्रियोंको, जो कि सब परिस्थितियों को सावधानोसे समझकर प्रत्येक समस्याका उपयुक्त ही निकार करते थे, महाराज धृतिषणको राजधानीको जानेकी आज्ञा दी ।। ४० ।। मंत्री प्रस्थान जब मंत्रियोंने प्रस्थान किया तो उनके साथ केवल उनके अनेक मित्र और बन्धु-बान्धव ही नहीं गये थे अपितु महाराज धर्मसेनकी सुविशाल चतुरंग ( हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति ) सेनाने भी प्रयाण किया था । राजाके चारों प्रधान मंत्रियोंके साथ प्रस्थान करती हुई वह सेना लगती थी मानो यम, वरुण, कुबेरादि चारों दिक्पालोंके नेतृत्वमें देवराज इन्द्रकी विजयवाहिनो ही चली जा रही थी ।। ४१॥ I १.[पत्या समारोपित° ] । २. म स्वमतप्रसिद्ध । ३. [ गमनप्रतीक्षाम् ] । H ARANAHAITAMARHATHANE Jain Education Inter n al For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy