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द्वितीयः
वराङ्ग चरितम्
नृपोत्तमः शान्तरिपुजितात्मा वयोऽधिकस्तुल्यतमः कुलेन । श्रीधर्मसेनो धृतराजवृत्तः स सादरः कौशलमाचचक्षे ॥४६॥ तस्यात्मजः कान्ततमः प्रजानामुदारवृत्तः शुचिमान्नयज्ञः। जामातृतां प्राप्तुमनाः कुमारो महीपते ते चरणौ ननाम ॥ ४७ ॥ तेषां वचो वाक्यविदां निशम्य समर्थ्य' सम्यङ्नॅपतिस्तदानीम् । संचिन्त्य कन्यावयसस्समाप्ति तेभ्योऽनुमत्यैर्व मवोचदित्थम् ।। ४८ ॥ कन्यापि तेनैव समानकल्पा कलागुणैश्चापि वयोवपुाम् । स चापि तस्या यदि युक्तरूपः किमन्यदिष्येत तयोर्नलोके ॥ ४९ ॥
सर्गः
हे महाराज? आप जानते ही हैं कि महाराज धर्मसेन राजाओंके मुकुटमणि हैं। उनके शत्र सदाके लिए शान्त हो गये हैं। उनके आत्मनिग्रहका तो कहना ही क्या है। वे राजाके आचरणको किस खूबीसे पालते हैं इसके अतिरिक्त आपके समान कूलीन होनेपर भी आपसे अवस्थामें बड़े हैं। उन्हींने हम लोगोंके द्वारा आपसे सस्नेह और सादर कुशल क्षेम कहा है ॥४८॥
महाराज धर्मसेनके पुत्र कुमार वराङ्ग अत्यन्त कान्तिमान हैं । जनताके सुख दुख में बड़ी उदारतासे व्यवहार करते हैं, उनकी आचार विचार विषयक पवित्रताका तो कहना ही क्या है ? और नीतिशास्त्रके तो वे परम पण्डित ही हैं। उन्होंने भी हे राजन् आपके चरणोंमें प्रणाम भेजा है क्योंकि वे आपके दामाद होनेकी इच्छा करते हैं ।। ४७ ॥
कन्याके पिताकी स्वीकृति भाषणशैलीके पंडित उन मंत्रियोंके वचनोंको सुनकर राजा धृतिषणने उसी समय सब बातोंपर भली भांति विचार किया, तथा अपनी पुत्रीकी कन्या अवस्थाकी समाप्ति तथा युवतीअवस्थाका प्रारम्भ विचारकर उन्होंने मंत्रियोंसे कहा कि ऐसा ही हो' । और अपनी पुत्रीका परिचय देने के लिए निम्नप्रकारसे बोले ।। ४८ ।। - आपकी राजकुमारी भी ललितकला, सद्गुण, रूप, आकार, स्वास्थ्य अवस्था आदि सवही विशेषताओंमें कुमार वराङ्गके ही समान है । और वह भी यदि सब प्रकारसे उसके ( सुनन्दाके ) उपयुक्त वर है तो फिर इस मनुष्यलोकमें उन दोनोंके
लिए इससे अधिक और चाहिये हो क्या है ।। ४९ ॥ - १. [ संमथ्य ]। २. क अनुमित्येवम् ।
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