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वराङ्ग चरितम्
चत्वारिंशच्चरित्रस्य गोत्रनाम्नस्तु विंशतिः । आयुष्कस्य त्रयस्त्रिशत्सागराश्च परा स्थितिः॥ ४० ॥ द्विषण्महर्ता वेद्यस्य तथाष्टौ नामगोत्रयोः । अन्तर्मुहूतिकी शेषे जघन्या स्थितिरिष्यते ॥ ४१ ॥ तेषामथ दुरन्तानामष्टानां घोरकर्मणाम् । मिथ्यात्वासंयमौ योगाः कषाया बन्धहेतवः ॥ ४२ ॥ ज्ञानविद्वेषिणो ये च प्रतिपक्षप्रशंसिनः। असादेन रता भयो ज्ञानविघ्नकराश्च ये॥४३॥
तुः
कोड़ाकोड़ी सागर बतायो है। किन्तु कर्मोंके राजा मोहनीय कर्मको उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोड़ी सागर है ।। ३९ ।।
कर्म-स्थिति किन्तु उसीके अवान्तरभेद चारित्र मोहनीयकी चालीस कोड़ाकोड़ी सागर ही है। गोत्रकर्म और नामकर्मकी उत्कृट में आयु बीस कोडाकोड़ी सागर ही है और आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है ॥ ४० ॥
इन्हीं कर्मोकी जघन्य स्थितिपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि वेदनीय कर्म कमसे कम ( दो छह अर्थात् ) बारह मुहूर्त रहता है, नामकर्म और गोत्रकर्म आठ मुहूर्त पर्यन्त हो जघन्य रूपसे टिकते हैं और बाकी ज्ञानावरणी, मोहनीय, आयु और अन्तरायकी न्यूनतम स्थिति अन्तर्मुहुर्त ( एक मुहूर्त अर्थात् अड़तालीस मिनटसे भी कम ) है ॥ ४१ ॥
कर्मबन्धके कारण बुरेसे बुरे फल देनेवाले अतएव जीवके लिए अत्यन्त भयंकर इन आठों कर्मोंके बन्धके प्रधान कारण मिथ्यात्व, (भ्रान्त श्रद्धा ) असंयम, (अनुचित आचार-विचार ) योग (मन, वचन और कायको सब ही चेष्टाएँ ) और कषाय ही हैं ।।४२॥
ज्ञानावरणोका बन्ध जिन प्राणियोंको सम्यक् ज्ञानसे द्वेष है (प्रदोष), जो (प्रतिपक्ष ) मिथ्या मार्गोंकी प्रशंसा करते हैं दूसरोंके सम्यक् ज्ञानकी विनय तथा प्रशंसा नहीं करते उसके प्रचारको रोकनेमें जिन्हें आनन्द आता है, ज्ञान अर्जन करनेवालोंको सिद्धिमें जो बार-बार अनेक विघ्न बाधाएं डालते हैं ( अन्तराय ) किसी विषयके विशेषज्ञ होते हुए भी दूसरे न जान सकें इसीलिए अपने ज्ञानको जो व्यक्ति छिपाते हैं ( निन्हव ), सम्यक् ज्ञान और सम्यक् ज्ञानियोंका जो अहंकारी निरादर करते हैं, जिन्हें अपने १. [ गोत्रनाम्नोस्तु ] । २. [ आसादने ] ।
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