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________________ बराङ्ग चरितम् निह्नवं ये कुर्वन्ति अवज्ञामप्यविस्मयाः। ज्ञानावृतिकरं कर्म बध्नन्ति नियमेन ते ॥४४॥ उत्सूत्रं ये च कुर्वन्ति अकालेऽधीयते च ये। विनयादिक्रियाहोनास्ते श्रुत्यावृतिबन्धकाः ॥ ४५ ॥ यथा नभसि संपूर्ण शशाङ्क प्रावृडम्बुदः । संवृणोति क्षणेनैव जीवं ज्ञानावृतिस्तथा ॥ ४६ ॥ हस्तविक्षोभविक्षिप्तः सचलः क्षणतः पुनः । प्रावृणोत्युवकं यद्वत्तद्वद् ज्ञानावृतं स्मृतम् ॥ ४७॥ द्रव्याण्यशक्तः पुरुषो द्रष्टुं तिमिरलोचनः । अशक्तस्त्वावृतज्ञानः सत्स्वभावान्परीक्षितुम् ॥ ४८ ॥ ज्ञानका अहंकार तथा अन्य ज्ञानियोंसे अकारण बैर होता है ( मात्सर्य ), ऐसे लोग निश्चयसे ज्ञानावरणीका बन्ध करते हैं ।। ४३-४४ ॥ जो सत्य आगमकी सुत्र परम्पराका उल्लंघन करके पढ़ते हैं, जिन्हें बजित समय ( अकाल ) में ही पढ़नेकी इच्छा होती है अथवा जो गुरू, शास्त्र आदिकी विनय और भक्तिको यथाविधि नहीं करते हैं वे ही प्राणी श्रुत ज्ञानावरणी कर्मका निःसन्देह बन्ध करते हैं ।। ४५ ।। वर्षा ऋतुके काले-काले घने मेघ आकाशमें धवल चन्द्रिकाको फैला देनेवाले पूर्णिमाके षोडसकला युक्त चन्द्रमाको जैसे अकस्मात् हो कहींसे आकर ढंक लेते हैं उसी प्रकार ज्ञानवारणी कर्म भी ज्ञान गुण युक्त आत्माको एक क्षण भरमें ही आवृत कर लेता है ।। ४६ ।। किसी एक ओर इकट्ठी हुई काई जिस प्रकार हाथके आघातसे हिलाये डुलाये जानेपर क्षणभरमें ही पूरी स्वच्छ जलराशिके ऊपर फैल जाती है बिल्कुल इसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्मका स्वभाव होता है ।। ४७ ।। जिसकी आँखोंकी ज्योति नष्ट हो गयी फलतः आँखोंमें अन्धकार छा गया है ऐसा व्यक्ति सामने पड़े हुए द्रव्योंको देखनेमें असमर्थ हो जाता, ठीक इसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्मने जिस जीवके ज्ञानपर पर्दा डाल दिया है वह पदार्थोंके सत्य में लक्षणोंका विवेचन नहीं कर सकता है ।। ४८ ॥ [ ६७] ११. म स च लक्षणतः, [शवलः] । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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