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________________ वराङ्ग चरितम् नव प्रकृतयः प्रोक्ता दृष्टघावरणकर्मणः । ज्ञानावृतिनिमित्तानि तान्येवोक्तानि तस्य च ॥ ४९ ॥ वृक्षाग्रे वाथ रथ्यायां तथा जागरणेऽपि वा । निद्रानिद्राप्रभावेन न दृष्टयुद्धाटनं भवेत् ॥ ५० ॥ स्यन्दते' मुखतो लाला' तनुं चालयते मुहुः । शिरो नमयतेऽत्यर्थं प्रचलाप्रचलाक्रमः ॥ ५१ ॥ स्वपत्युत्थापितो भूयः स्वपत्कर्म करोति च । अबद्धं लभते किंचित्स्त्यानगृद्धिक्रमो मतः ॥ ५२ ॥ यान्तं संस्थापयत्याशु स्थितमासयते शनैः । आसीनं शाययत्येव निद्रायाः शक्तिरीदृशी ॥ ५३ ॥ दर्शनावरणी-बन्धकारण दर्शनावरणी कर्मकी निद्रा, प्रचला आदि नौ उत्तर प्रकृतियाँ पहिले कह चुके हैं। जो प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन आदि ज्ञानावरणी कर्मके बन्धमें कारण होते हैं यही सबके सब दर्शनावरणी कर्मके बन्धमें भी प्रधान निमित्त हैं ।। ४९ ।। निद्रानिद्रा दर्शनावरणी के प्रभावसे आदमी वृक्ष की शाखाओं और शिखरोंपर भी सो जाता है, चौराहे या बीच सड़कपर भी मौजसे खुर्राटे भरता है तथा बार-बार जगाये जानेपर तथा स्वयं भी जागनेका भरपूर प्रयत्न करके भी वह आँख नहीं खोल पाता है ।। ५० ॥ यह सब प्रचलाप्रचलाका ही प्रतिफल है जो सोते व्यक्ति के मुखसे लार बहती है, सोनेवाला शरीरको बार-बार इधरउधर चलाता है तथा शिरको इतना अधिक मोड़ देता है मानो टूट जायेगा ।। ५१ ।। स्त्यानगृद्धि दर्शनावरणी के उदय होनेसे व्यक्ति जगाकर खड़ा कर देनेके तुरन्त बाद ही फिर सो जाता है, सोते-सोते ही उठकर कोई काम कर डालता है और नींद नहीं टूटती है, तथा सोते-सोते कुछ ऐसा बोलता है जिसमें पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता है || ३५२ ।। निद्रा दर्शनावरणी में वह शक्ति है कि वह चले जाते हुए जीवको तुरन्त कहीं रोक देती है, रुककर खड़े हुए व्यक्तिको बिना बिलम्ब बैठा देती है, बैठे हुए पुरुषको उसके बाद ही लिटा देती है और लेटेको तुरन्त निद्रामग्न कर देती है ॥ ५३ ॥ १. क स्पन्दते । २. म लोला । ३. [ लपते ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only य चतुर्थः सर्गः [ ६८ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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