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बराल
चरितम्
किंचिदुन्मिषितो' जीवः स्वपित्येव महमहः। ईषदीषविजानाति प्रचलालक्षणं हि तत् ॥ ५४॥ चक्षुर्दर्शनावरणं दृष्टिवीर्य हिनस्ति तत् । शेषेन्द्रियाणां वीर्याणि हन्त्यचक्षुः स्ववीर्यतः ॥ ५५॥ अवधिः परमाह्वश्च स्वनामावरणावृतौ । केवलप्रेक्षणावृत्यावृतं केवलदर्शनम् ॥ ५६ ॥ दुःखशोकवधाक्रन्दबन्धनाहाररोधनम् । असातवेदनीयस्य कर्मणः कारणं ध्रुवम् ॥ ५७॥ दानधर्मदयाक्षान्तिशौचवततपोन्विताः । शोलसंयमगुप्ताश्च सातं बघ्नन्ति जन्तवः ॥ ५८॥
यह सब प्रचला दर्शनावरणीके ही लक्षण हैं कि आदमी आँखोंको थोड़ा-सा खोले रहता है अर्थात् पलक पूरे नहीं ढपते है तो भी फिर-फिर कर सो जाता है और बीच बीच में कभी-कभी आँख भी खोल देता है इतना ही नहीं सोते हुए भी उसे अपने आस पासकी घटनाओंका थोड़ा-थोड़ा ज्ञान रहता है ।। ५४ ॥
चक्षु दर्शनावरणी कर्म आँखोंकी पदार्थ देखनेकी सामर्थ्यको सर्वथा नष्ट कर देता है और शेष स्पर्श, रसना, घ्राण, श्रोत्र A और मनको प्रतिभास करनेकी शक्तिको अचक्षु दर्शनावरणी कर्म नष्ट कर देता है ।। ५५ ॥
पहिले अवधिज्ञानका वर्णन कर चके हैं उसके द्वारा जानने योग्य उत्कृष्ट और जघन्य पदार्थोके साधारण प्रतिभासको जो आवरण अपनी शक्तिसे रोक देता है उसे अवधिदर्शनावरणी कहते हैं केवलज्ञानके ज्ञेय त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त। पदार्थों और उनकी सम्पूर्ण पर्यायोंके सामान्य प्रतिभासमें जो बाधक है उसे केवलदर्शनावरणी कहते हैं ।। ५६ ।।
वेदनीय वन्ध विचार प्राणियोंको दुख देना, शोक सागरमें ढकेलना, वध करना, रोना, विलाप करना, प्राणियोंको बन्धनमें डालना और उनको शास्ति ( शिक्षा = दंड ) देने के लिए भोजन पान रोक देना इस प्रकारकी सबही चेष्टाएँ निश्चयसे असातावेदनीय कर्मके बन्धका कारणहोती हैं ।। ५७ ॥
सत्पात्रों तथा अभावग्रस्त व्यक्तियोंको दान देना, कर्तव्यपालन, प्राणिमात्र पर दयाभाव, चंचलताके • कारणोंकी २१. म किंचिदुष्मितो, क किंचिदु (न्वि ) मितो। २. क स्वनामावरणं वृतौ ।
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