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________________ द्विविधं नाम तत्प्राहुः शुभाशुभसमन्वितम् । द्विचत्वारिंशदन्येन नवतिस्त्युत्तराण्यथ ॥ ३५॥ उच्चनीचद्वयं गोत्रमुच्चनीचं च मानुषम् । तिर्यङ्नारकयोर्नीचमुच्चमेवामरं स्मृतम् ॥ ३६ ॥ दानलोभौ च भोगश्चोपभोगो वीर्यमेव च । पञ्च प्रकृतयस्तस्य अन्तरायस्य कर्मणः ॥ ३७॥ उत्तरप्रकृतयः प्रोक्ता अष्टानामपि कर्मणाम् । शतमष्टोत्तरं चैव चत्वारिंशत्प्रमाणतः ॥ ३८॥ आदितस्तु त्रयाणां च अन्तरायस्य कर्मणः। कोटीकोटयस्तथा त्रिंशन्मोहनीयस्य सप्ततिः ॥ ३९ ॥ नामकर्म जीवके शारीरिक आकार प्रकारोंका निर्माता नामकर्म शुभ ( शुभ नामकर्म ) और अशुभ ( अशुभ नामकर्म ) विशेषणोंसे युक्त होकर प्रधानरूपसे दो ही प्रकारका होता है। मुख्य भेदोंकी अपेक्षासे विभक्त करनेपर इसके व्यालीस भेद होते हैं तथा अवान्तर भेदोंकी अपेक्षासे देखनेपर इसीके तेरानवे भेद हो जाते हैं ।। ३५ ।। गोत्रकर्म गोत्रकर्मके दो ही भेद हैं:-प्रथम उच्चगोत्र और द्वितीय नीचगोत्र। मनुष्य गतिमें उच्चगोत्र और नीचगोत्र दोनों होते हैं, तिर्यञ्चगति और नरकगतिमें एकमात्र नीचगोत्र हो होता है और इसी प्रकार देवगतिमें भी केवल उच्चगोत्र ही शास्त्रमें । कहा है ॥ ३६॥ जीवको स्वभाव प्राप्तिमें बाधक अन्तिमकर्म ( अन्तरायकर्म ) जीवकी दान देने, भोग, उपभोग और लाभ प्राप्ति तथा वीर्य वर्द्धनमें अडंगा डालता है फलतः उसकी दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्त राय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये पाँच ही प्रकृतियाँ होती हैं ।। ३७ ।। अन्तरायकर्म इस प्रकार कर्मकी आठों मूल प्रकृतियोंकी उत्तर प्रकृतियोंका प्रमाण, उक्त उत्तर प्रकृतियोंको जोड़नेपर एक सौ । अड़तालीस केवली भगवानने कहा है ।। ३८ ॥ आदिके तीन अर्थात् ज्ञानावरणी, दर्शनावरणो और वेदनीय तथा अन्तरायकर्म इन चारों कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति तीस । STA-मनाना Jain Education International For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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