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बराङ्ग चरितम्
चतुर्दशः सर्गः
गुणाधिकेनाप्रतिपौरुषेण यदुज्झितं शून्यवदेव तत्स्यात् । इदं पुरं भद्रगुणं प्रकृत्या सौभद्र मेवेति च केचिदृचः ॥ ९२॥ नणां प्रियोऽसौ खलु पौरुषेण रूपेण नारीनयनाभिकान्तः । विद्व'दगुरुणां विनयोपचारैः कश्चिद्धटोऽतिप्रियतां प्रयातः ॥ ९३ ॥ एवं महात्मा प्रथितप्रणादः कश्चिद्भटाख्यां प्रतिलभ्य शूरः। बराअनामत्वमथावसृज्य वणिग्जनः सार्धमुवास तस्मिन् ॥ ९४ ॥ आख्यायिकाभिश्च कथाप्रपञ्चैर्नाट्यैश्च गोतैः परिवादिनीभिः । उद्यानयाने रहिहेतुभूतैः कश्चिद्भटेन प्रतिनीयतेऽद्धा ॥ ९५ ॥
तब दूसरे कहते थे हमें इस सबसे क्या प्रयोजन ! हम तो इतना जानते हैं जिस किसी नगरमें जिन लोगोंको इसके साथ रहनेका । सौभाग्य प्राप्त होता है वे लोग निश्चयसे बडे भाग्यशाली हैं ।। ११ ।।
पुरुषार्थमें जिसका कोई तुलना नहीं कर सकता है, गुणोंसे जिसे कोई लांघ नहीं सकता है, ऐसे इस पुरुष सिंहके द्वारा जो नगर छोड़ दिया गया है वह सूना ही हो गया होगा? यह नगर अपनी प्राकृतिक सम्पत्तियों के कारण यों ही कल्प (स्वर्ग) ॥ मय समझा जाता था किन्तु अब इसके समागमके द्वारा तो सर्वथा कल्याणकारी तथा सम्पन्न ही हो गया है । ९२॥
अपने अनुपम पुरुषार्थ और पराक्रमके कारण यह मनुष्योंको प्रिय है, निर्दोष सौन्दर्य तथा कान्ति इसे कुल ललनाओंकी आँखोंका अमृत बना देते हैं। अपनी विनम्रता तथा शिष्टाचारके द्वारा यह विद्वानों तथा बड़ों-वृद्धोंके हृदयमें स्थान कर लेता है। इस प्रकार यह कश्चिद्भट सबके लिए परम प्रिय हो गया है ।। ९३ ।।
उक्त प्रकारसे उस पुण्यात्माका यश दूर-दूर तक फैल गया था अपनी वीरतासे उपाजित कश्चिद्भट ही उस शूरका । नाम हो गया था, तथा अपना प्रथम नाम वरांग उसने छोड़ ही दिया था। इस प्रकार ललितपुरमें वह वणिकोंके साथ निवास कर रहा था ।। ९४ ॥
ललितपुरकी दिनचर्या ___ आख्यायिकाएँ कह सुनकर, कथाओंको बढ़ाकर कथन तथा श्रवण, नाटक आदिका दर्शन तथा अभिनय, गाना, वीणा आदि बाजे बजाकर तथा मनोविनोद तथा प्रकृति प्रेमके कारण उद्यानको जाना इत्यादि कार्योंके द्वारा कश्चिद्भटके दिन कटते थे ॥ १५ ॥ १. म विद्वन्।
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